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न कोई कर्म का कर्त्ता है और न कर्म फल का भोक्ता, मात्र शुद्ध धर्मों की प्रवृत्ति होती है, यही सम्यग्दर्शन है। ये कर्म और फल पौर्वापर्य संबंध रहित बीज और वृक्ष की तरह अनादि काल से एक दूसरे पर आश्रित हैं और अपने-अपने हेतुओं पर अवलम्बित होकर प्रवृत्त होते है। यह परम्परा कब निरुद्ध होगी, यह भी नहीं बताया जा सकता ।
जीव के विषय में कुछ शाश्वतवाद का और कुछ उच्छेदवाद का अबलंबन लेते हैं और परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रखते हैं । '
बुद्ध आत्मा के शाश्वत और अशाश्वत के प्रश्न पर मौन रहते थे, क्योंकि शाश्वत कहते तो उसका समर्थन होता जो मत स्थिरता में विश्वास रखता है और अशाश्वत कहते तो उनका समर्थन होता जो शून्यवाद में विश्वास करते हैं। '
नागसेन और राजा मिलिन्द के प्रश्नोत्तर में भी आत्मा के स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। राजा मिलिन्द पूछता है- आत्मा क्या है? तब नागसेन समाधान के स्थान पर प्रश्न करते हैं कि क्या डंडे को, धुरा को, पहिये को और ढांचे को रथ कहते हैं? मिलिन्द ने कहा- भगवन् ! ये सब रथ के भाग हैं, रथ नहीं ।
तब नागसेन ने कहा- उसी प्रकार से एक साथ उपस्थित स्कंधों का नाम ही सत् या आत्मा है । '
बौद्ध दर्शन में क्षणिक संवेदनाओं को ही आत्मा कहते है। इनके अतिरिक्त आत्मा की पृथक् सत्ता उपलब्ध नहीं होती । '
हीनयानी वसुबंध ने स्पष्ट कहा है कि पंचस्कंधी के अलावा आत्मा कोई तत्त्व नहीं है। "
बुद्ध ने बिना किसी आधार के भी संसार की अविच्छिन्नता की व्याख्या
1. गणधरबाद:- प्रस्तावना पृ. 92
2. मज्झिम निकाय मूलपण्णासक 35.3.5-24
3. भा. दर्शन डा. राधाकृष्णन भाग एक पृ. 384.
4. मिलिन्द 2.1.1
5. मज्झिमनिकाय उपरिपण्णासक 2.2.1-6
6. अभिधर्मकोष 3.18
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