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द्रव्य और शक्ति भिन्न-भिन्न नहीं हैं; एक ही वस्तु के रूपांतरण हैं। एक पौंड कोयले से शक्ति के रूप में दो किलोवाट की विद्युत शक्ति को प्राप्त किया जा सकता है।
चूंकि वैज्ञानिक परीक्षण पुद्गल तक ही सीमित हैं, अतः पुद्गल की शक्ति को मापा जाता है, परंतु द्रव्य चाहे पुद्गल हो या जीव, सभी अनंत शक्ति संपन्न है और इसी कारण उसका त्रैकालिक अस्तित्व है।
परिणमन का अर्थ है अवस्थांतर होना। कोई व्यक्ति एक स्थान से प्रयाण कर अन्य स्थान पर पहुँचा। स्थान का परिवर्तन तो हुआ, परंतु व्यक्ति में परिवर्तन नहीं हआ। द्रव्य का परिणमन भी ऐसा ही है। सर्वथा उत्पाद या विनाश न होकर मात्र अवस्था का परिवर्तन है।'
कूटस्थ नित्यवादियों की मान्यता है कि पदार्थ सर्वथा नित्य होते हैं, क्योंकि वे सत् हैं "सर्वं नित्यं सत्वात्"। उनके अनुसार क्षणिक पदार्थों में अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि क्षणिक पदार्थ एक क्षण के बाद दूसरे क्षण में स्थिर नहीं रहते। जबकि बौद्धों की मान्यता है कि “संपूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं क्योंकि वे सत् हैं-"सर्वं क्षणिकं सत्वात्।" नित्य पक्ष में अर्थक्रिया संभव नहीं है। अर्थक्रिया के लिये पूर्व स्वभाव का विनाश और उत्तरकालीन स्वभाव का पदार्थ के प्रयोजन भूत कार्य को धारण करना आवश्यक है जो कि नित्य तत्व में संभव नहीं है।'
जैन दर्शन इन दोनों मान्यताओं का खंडन करता है। उसके अनुसार “जो दोष नित्य एकांतवाद में है, वही दोष सर्वथा क्षणिकवाद में है।"
__ सर्वथा नित्य एकांतवाद में सुख, दुःख, पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकती।
__ अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर और एक रूप को नित्य कहते हैं। यदि आत्मा अपनी कारणसामग्री से सुख को छोड़कर दुःख का उपभोग करने लगे तो अपने नित्य और एक स्वभाव के त्याग के कारण आत्मा को अनित्य मानना 1. परिणामस्तद्विदामिष्ट: उद्धृतेयम् स्याद्वाद. 239 2. स्याद्वादमं 26.233.34. 3. अन्ययोगव्य. 26. 4. नैकांतवादे सुखदुःखभोगे...बंधमोक्षौ" अन्ययो. 27.
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