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जैन दर्शन के अनुसार आत्मा 'आत्मा' शब्द की व्युत्पत्ति है 'अतति-गच्छति-जानाति इति आत्मा' अर्थात् शुभ, अशुभ रूप कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापार यथासंभव तीव्र मंद आदि रूपों में समग्रतः ज्ञान आदि गुणों में रहते हैं। ज्ञानादिगुण आत्मा द्रव्य के हैं। अत: उपर्युक्त व्युत्पत्ति सार्थक है।
जैन दर्शन ने आत्मा के जिस स्वरूप का प्रतिपादन शताब्दियों पूर्व किया था, अद्यपर्यंत वही स्वरूप उसी रूप से स्थापित है। उत्तरवर्ती तार्किकप्रतिभासंपन्न दार्शनिक आचार्यों ने उस स्वरूप को अपनी प्रखर तर्क शैली से सिद्ध किया, और उस स्वरूप में परिवर्तन नहीं आने दिया।
'आत्मवाद या आत्मा भारतीय दर्शन की आत्मा ही है' कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि भारतीय दार्शनिकों के संपूर्ण चिंतन का केन्द्रबिंदु आत्मा ही रही है; और सारा दर्शन इसी के इर्द-गिर्द घूमता-सा प्रतीत होता
है।
'आत्मवाद' शब्द का प्रयोग हमें अति-प्राचीन जैन दर्शन के प्रथम अंग के रूप में स्थापित ‘आचारांग' में भी उपलब्ध होता है। आगे इसी में “आत्मा को विज्ञाता और विज्ञाता को ही आत्मा कहा है। ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा का व्यपदेश (व्यवहार) होता है।
इस सूत्र के द्वारा आत्मा की दो परिभाषाएँ स्पष्ट हुईं- प्रथम परिभाषा द्रव्याश्रित और द्वितीय गुणाश्रित है। चेतन (आत्मा) द्रव्य है, चैतन्य (ज्ञान) उसका गुण है। चेतन प्रत्यक्ष नहीं होता, परंतु चैतन्य प्रत्यक्ष होता है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं तब ज्ञान 1. से आयाबाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई" आचारांग 1.1.5
2. जे आया से विण्णाया.जे विण्णाया से आया जेण विजाणाति से आया आचारांग 5.5.104
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