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की तरह आत्मा भी अनेक हो जायेगी? इस प्रश्न का समाधान ‘भगवती' में उपलब्ध होता है। घट, पट, रथ, अश्व आदि ज्ञेयों में परिणत ज्ञान के आधार पर घटज्ञानी, आत्मा को ही पटज्ञानी, रथज्ञानी, अश्वज्ञानी आदि कहा जाता है।' आत्मा जिस समय ज्ञान के जिस परिणमन से परिणत होती है उसी के आधार पर आत्मा का व्यपदेश अर्थात् व्यवहार होता है!
लोकराशि दो ही प्रकार की मानी है-जीव राशि और अजीव राशि।' और लोक में शाश्वत क्या हैं? इस प्रश्न का समाधान दिया गया है कि जीव और अजीव दोनों शाश्वत हैं।'
चूँकि अजीव का महत्व जीव के कारण ही है, क्योंकि अजीव स्वयं भोक्ता नहीं है, अपितु जीव ही अजीव का भोक्ता है। अगर जीव न रहे तो सृष्टि का कोई मूल्य नहीं है, पर ऐसा समय संभव ही नहीं है कि सृष्टि जीवरहित कभी हो।
षड्द्रव्यों में जीव को अस्तिकाय कहा है।' अस्तिकाय के स्वरूप के संबंध में जब गौतम स्वामी ने यह पूछा कि अस्तिकाय का स्वरूप क्या है? तब प्रभु महावीर ने कहा-जैसे चक्र का, छत्र का, चर्मरल का, दंड का, दुष्यपट्ट का, आयुध का, मोदक का खंड या टुकड़ा क्रमशः चक्र, छत्र, रल, दंड, दुष्यपट्ट या आयुध, मोदक नहीं कहला सकता, वैसे ही अस्तिकाय के एक प्रदेश को अस्तिकाय नहीं कहते, परन्तु सम्पूर्ण तत्व को ही अस्तिकाय कहते हैं। मिट्टी के अभाव में जिस प्रकार घट का निर्माण असंभव है, वैसे ही आत्मा के अभाव में सृष्टि का व्यापार भी असंभव है।
आत्मा के अस्तित्व की सिद्धिः-जिस प्रकार हमें घट, पट आदि पुद्गल द्रव्य की पर्यायों के दर्शन होते हैं, वैसे हमें आत्मा के दर्शन नहीं होते। इसकी प्रतीति हमें कारण व्यापार द्वारा होती है। सारथी जिस प्रकार से रथादि का संचालन करता है, आत्मा भी उसी प्रकार से शरीर का नियंत्रण करती
1. भगवती 6.174 2. "दो रासी पण्णता तं जहा जीवरासी चेव अजीवरासी चेव" ठाणं 2.392. 3. "के सासया लोगे? जीवच्चेव अजीवच्चेव" ठाणं 2.419 4. भगवती 25.4.4 5. भगवती: 2.10.1 6. भगवती 2.10.4, (3)
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