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विशेष में सर्वथा भेद मानना अनुपयुक्त है।'
द्रव्य गुण और पर्याय में एकांत अभेद भी नहीं है:-गुण और गुणी में सर्वथा अभेद मानने पर या तो गुण रहेंगे या गुणी, तब दोनों का व्यपदेश संभव नहीं होगा।' अकेले गुणी के या गुण के रहने पर यदि गुणी रहता है तो गुण का अभाव होने के कारण वह निःस्वभावी होकर अपना भी विनाश कर बैठेगा और यदि गुण रहता है तो वह निराश्रय होकर कहाँ आश्रय लेगा।'
ब्रह्माद्वैतवादी संपूर्णत: अभेद को ही स्वीकार करते हैं। उपनिषदों में ऐसे अनेकों वाक्य आते हैं जो मात्र ब्रह्म की ही सत्ता को स्थापित करते हैं। चेतन-अचेतन समस्त सृष्टि के तत्व मात्र उस ब्रह्म के प्रतिभासमात्र हैं। जिस प्रकार तिमिर रोगी को विशुद्ध आकाश भी चित्र विचित्र रेखाओं से खचित दिखाई देता है, उसी प्रकार अविद्या या माया के कारण एक ही ब्रह्म अनेक प्रकार के देश काल और आकार के भेदों से चित्र विचित्र प्रतिभासित होता है। वस्तुतः जो भी सृष्टि में था, है और रहेगा, वह सब ब्रह्म है।'
यही ब्रह्म संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का उसी प्रकार कारण है जिस प्रकार मकडी अपने जाल के प्रति।'
सृष्टि में एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब कुछ मिथ्या है- "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" यह उपनिषद की प्रसिद्ध उक्ति है, तो क्या आत्मश्रवण, मनन और ध्यान, जिसे वे आत्मशुद्धि का और अमृत की प्राप्ति का माध्यम मानते हैं, वह भी मिथ्या है या अविद्यात्मक है? वेदांती इसका भी समाधान करते हैं और कहते हैं “भेदरूप होने से ये भी अविद्यात्मक हैं, परंतु इनसे चूँकि विद्या की उत्पत्ति संभव है। जैसे धूल युक्त पानी को स्वयं धूलमय होते हुए भी कतक के फल का चूर्ण स्वच्छ कर देता है; जहर को जहर समाप्त कर देता है, उसी प्रकार श्रवण आदि भेदरूप अविद्या भी मोह, राग, द्वेष आदि मूल अविद्या को नष्टकर स्वगतभेद की शांति से निर्विकल्प स्वरूप को प्राप्त 1. कार्य कारण नानात्वं...यदीष्यते। आ.मी. 6.61. 2. एकांतानन्यत्वे हि गुणा एव वा स्युः रा.वा. 5.2.9.439 3. यदि गुणा एव द्रव्याभावे निराधारत्वादभावः स्यात्। रा.वा. 5.2.9.439 4. सर्वं खल्विदं ब्रह्म छान्दोग्य उप. 3.1.14 5. यथा विशुद्धमाकाशं तिमिराप्लुतो जनः संकीर्णमिव रेखामाभिश्चित्राभिरविमिन्यते तथेदममलं ब्रह्म
निर्विकारमविद्यया कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रपश्यति बृहदा. भा.वा. 3.5.43.44 6. यथोर्णनाभः सृअते गृह्वीतेश्च.....मुण्डकोप. 1.1.7
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