________________
उभयात्मक और अवाच्य है, नय की अपेक्षा से ही वस्तु सत् आदि रूप है, सर्वथा नहीं।'
नय का विवेचन इसी प्रकरण में आगे के पृष्ठों में है। जैन दर्शन वस्तु को अपेक्षा से ही प्रतिपादित करता है। वक्ता जिस दृष्टि से वस्तु के स्वरूप को कहना चाहता है उसी दृष्टि से उस वस्तु का विचार किया जाता है। वक्ता के अभिप्राय के विरुद्ध अगर एक ही दृष्टिकोण से वस्तु का विचार किया जाये तो अव्यवस्था निश्चित है। जैन दर्शन में वस्तु का ऐकान्तिक रूप मिथ्या है। अतः समस्त वस्तुओं को अनेकांतात्मक रूप से ही प्रमाण का विषय मानना चाहिये।
वस्तु सदसदात्मक है :-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव की अपेक्षा सब पदार्थ सत् हैं और पररूपादि (परद्रव्य, परकाल एवं परभाव) की अपेक्षा सभी पदार्थ असत् हैं।'
चाहे चेतन हो या अचेतन, इस नियम का कोई भी अपवाद नहीं है। अगर इस नियम को अस्वीकृत कर दिया जाये तो या तो सारा संसार शून्य हो जायेगा या द्रव्य की सत्ता का कोई नियम नहीं रहेगा।
वस्तु में वाच्यावाच्यत्व है :- एक ही वस्तु में अनंत धर्म पाये जाते हैं। इन अनंत धर्मों में से जिस धर्म का प्रतिपादन किया जाये वह मुख्य और अन्य धर्म गौण कहे जाते हैं, ये ही शास्त्रीय भाषा में क्रमशः अर्पित और अनर्पित भी कहे जाते हैं।
जब क्रम से स्वरूपादि चतुष्टयी की अपेक्षा से सत् तथा पररूपादि चतुष्टयी की अपेक्षा से असत् अर्पित होते हैं उस समय वस्तु कथंचिद् उभयात्मक (सदसदात्मक) होती है और जब कोई स्वरूपादि चतुष्टय तथा पररूपादि चतुष्टय के द्वारा वस्तु के सत्वादि धर्मों का एक साथ प्रतिपादन करना चाहता है तो ऐसा कोई शब्द नहीं मिलता जो एक ही शब्द में दोनों धर्मों का प्रतिपादन कर सके; ऐसी अवस्था में वस्तु अवाच्य है।' 1. कथंचित् ते न सर्वथा। आ.मी. 1.14 2. षड्दर्शनसमुच्चय टीका 57.363. 3. सदेवं सर्व को व्यवतिष्ठते। आ.मी. 1.15 4. अर्पितानर्पितसिद्धेः त.सू.। 5.32 एवं स.सि. 5.32.588 5. क्रमार्पितद्वयाद्.......... शक्तितः। आ.मी. 1.16
50
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org