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वस्तु में अस्तित्व-नास्तित्व है-अस्तित्व और नास्तित्व, ये आपस में अविनाभावी हैं। अस्तित्व के अभाव में नास्तित्व नहीं है और नास्तित्व के अभाव में अस्तित्व नहीं है। अविनाभाव अर्थात् एक संबंध, जो उन दो पदार्थों में पाया जाता है जिनमें से एक पदार्थ के बिना दूसरा न रह सके।
एक ही वस्तु में रहने वाला अस्तित्व विशेषण होने से प्रतिषेध्य (नास्तित्व) का अविनाभावी है, जैसे हेतु में विशेषण होने से साधर्म्य वैधर्म्य का अविनाभावी होता है।
__ अन्वय को साधर्म्य और व्यतिरेक को वैधर्म्य कहते हैं। हेतु के होने पर साध्य का होना अन्वय है। हेतु के अभाव में साध्य का नहीं होना व्यतिरेक है। “पर्वत में अग्नि है, धूम होने से। यहाँ धूम हेतु है और अग्नि साध्य है, जहाँ वह्नि नहीं होती वहाँ धुंआ भी नहीं होता, यह व्यतिरेक है।
यद्यपि न्याय दर्शन कुछ हेतुओं को केवल अन्वयी और कुछ हेतुओं को केवल व्यतिरेकी मानता है, पर जैन न्याय के अनुसार सूक्ष्मता से देखा जाये तो कोई भी हेतु न केवल अन्वयी होता है और न केवल व्यतिरेकी।
बौद्ध तत्व (स्वलक्षण) को सर्वथा अवाच्य मानते हैं। उसमें विधि-निषेध रूप व्यवहार सर्वथा संवृति (कल्पना) से होता है।
वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है:- द्रव्य एक भी है और अनेक भी। सामान्य की अपेक्षा एक है और विशेष की अपेक्षा अनेक है। सामान्य सत्ता सभी पदार्थों में समान रूप से रहती है। विशेष सत्ता सभी पदार्थों की भिन्न-भिन्न है। घट की सत्ता से पट की सत्ता भिन्न है। इस सामान्य सत्ता और विशेष सत्ता को तो ‘पदार्थ की आत्मा' तक कह दिया गया है।
हेमचंद्राचार्य ने भी इसी मान्यता की पुष्टि की है कि “समस्त पदार्थ सामान्य की अपेक्षा अनेक होकर भी एक हैं और एक होकर भी विशेष की अपेक्षा अनेक है।'
अद्वैतवादी, मीमांसक और सांख्य सामान्य को ही सत् रूप में स्वीकार
1. अस्तित्वं....... भेदविवक्षया" आ.मी.। 1.17 2. सामान्यविशेषात्मा तदर्थों विषयः। परीक्षामुख 4.1 3. अन्ययो. व्य. 14 एवं आ.मी 2.34
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