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प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते है।'
यहाँ यह भी प्रश्न हो सकता है कि वस्तु तो अनंतधर्मात्मक है, तब उसके एक अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कैसे कहते हैं। इसका समाधान यही है कि नय के अभाव में स्याद्वाद की व्याख्या संभव नहीं है। जो एकांतवाद या आग्रह से अपनी मुक्ति चाहता है उसे नय को जानना अत्यंत आवश्यक है।
__ अनेकांत की सिद्धि में नय की वही भूमिका है जो सम्यक्त्व में श्रद्धा की, गुणों में तप की और ध्यान में एकाग्रता की है।' नय को विकलादेश भी कहते
यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि नय प्रमाण है या अप्रमाण। इसका समाधान हाँ में भी नहीं दिया जा सकता और ना में भी नहीं। जैसे घड़े में भरे समुद्र के जल को न समुद्र कहा जाता है न असमुद्र। जैसे घड़े का जल समुद्रैकदेश है समुद्र नहीं, वैसे ही नय प्रमाणैकदेश हैं अप्रमाण नहीं। अन्तर इतना है कि प्रमाण में पूर्ण वस्तु का ग्रहण होता है और नय में वस्तु के किसी एक पक्ष का।
पूर्व में हम इन्हीं प्रमाणैकदेश भूत नयों के द्वारा वस्तु में सप्रतिपक्षत्व, वाच्यावाच्यत्व आदि धर्मों का प्रतिपादन कर आये हैं। यहाँ इन वस्तुधर्मों को अन्य भारतीय दर्शनों में किसने और किस स्वरूप में स्वीकार किया है, इसका अंगुलिनिर्देश निम्न अनुच्छेदों में किया जा रहा है।
विभिन्न वस्तुधर्मों के विषय में दार्शनिक तुलना
सद्-असद्ः- जैन दर्शन तो वस्तु को सदसदात्मक मानता ही है, परंतु वैशेषिक दर्शन में भी महर्षि कणाद ने अन्योन्याभाव के निरूपण में वस्तु को उभयरूप ही स्वीकार किया है।'
1. स.सि. 133.241 2. नयचक्र 175 3. नयचक्र 176 4. स.सि. 1.6.24 5. “नायं वस्तु...यपोच्यते" तत्वार्थश्लोक 1.6 6. सच्चासत्। यच्चान्यदसदतस्तदसत् वैशेषिक द.अ. 9 आ. 1. सू. 4.5 उद्धृत चंपाबाई अभि. ग्रं. 250
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