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आभ्यंतर सामग्री के अनुसार समस्त कार्य उत्पन्न होते हैं और पर्याय की अपेक्षा से विनष्ट भी। इनमें परस्पर कार्य-कारण भाव बनते है, फिर भी सत् स्वतंत्र और परिपूर्ण है। वह अपने गुण-पर्याय का स्वामी भी है और आधार भी।
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कोई नया परिणमन नहीं ला सकता। जैसीजैसी सामग्री उपस्थित होती जाती है, कार्य-कारण नियम के अनुसार द्रव्य स्वयं वैसा वैसा परिणत होता जाता है। जिस समय प्रबल बाह्य सामग्री उपलब्ध नहीं होती, उस समय द्रव्य स्वयं की प्रकृति के अनुसार सदृश या विसदृश परिणमन करता ही है।
एक द्रव्य दूसरे में कोई नया गुणोत्पाद नहीं करता। सभी द्रव्य अपने अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं अर्थात् पर्याय परिवर्तन करते हैं।'
इसी तरह प्रत्येक द्रव्य अपनी परिपूर्ण अखंडता और व्यक्ति स्वातंत्र्य की चरमनिष्ठा पर अपने-अपने परिणमन चक्र का स्वामी है। कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य का नियंत्रक नहीं है। प्रत्येक सत् का अपने ही गुण और पर्याय पर अधिकार है। सभी द्रव्य स्वभाव में रहते हुए स्व द्रव्य का ही कार्य करते हैं, कोई द्रव्य अन्य द्रव्य का कार्य नहीं करता।
जो गुण जिस द्रव्य में होते हैं वे उसी द्रव्य में रहते हैं, अन्यत्र संक्रमण नहीं करते। गुण-पर्याय अपने ही द्रव्य में रहते है। सत् स्वलक्षण वाला स्वसहाय एवं निर्विकल्प होता है।
सभी प्रकार के संकर व शून्य दोषों से रहित संपूर्णवस्तु सद्भूत व्यवहारनय से अणु की तरह अनन्यशरण है, ऐसा ज्ञान होता है।'
द्रव्य की संख्या छः है। उन छः द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करता। यद्यपि वे परस्पर में मिले हुए रहते हैं। एक दूसरे 1. समयसार 372 2. सर्वभाव निज भाव निहारे पर कारज को कोयन धारे। द्रव्यप्रकाश 109. 3. जो जम्हि गुणे दब्बे.......... परिणामए दबं। स.मा. 103. विस्तार के लिये इसी की अमृतचंद्राचार्य
कृत टीका 4. तत्वं सल्लक्षणिकं-स्वसहायं निर्विकल्पं च प.ध.पू. 8.528 5. अस्तमितसर्वसंकरदोष क्षतसर्वशून्यदोषं वा। अणुरिव वस्तु समस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणम। वही प.ध.पू.
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