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की व्याख्या।
___ अब एक पर्याय वक्रता को लें तो उत्पाद-विनाश का कालभेद स्पष्ट हो जायेगा।
अंगुली का टेढ़ापन मिटा और वह सरल बनी; यह अंगुली की सरलता का उत्पादकाल, अमुक समय तक सरल रहकर वक्र बनी; यह सरलता का विनाशकाल और सरलता से वक्रता तक की यात्रा के मध्य जो समय व्यतीत हुआ वह सरलता का स्थितिकाल बना।'
इसे और स्पष्ट करने के लिए संपादक युगल ने एक मकान का उदाहरण भी दिया है। जब मकान निर्माण की प्रक्रिया से गुजरता है, तब वह संपूर्ण मकान की अपेक्षा तो उत्पद्यमान (अधूरा) है, परंतु उसके जितने भाग परिपूर्ण हो गये उनकी अपेक्षा से उसे 'बन गया' कहेंगे और जो बनने बाकी हैं, उनकी अपेक्षा उसे कहेंगे कि 'बनेगा। उत्पन्न होते द्रव्य को कहेंगे 'हो गया', नाश हो रहे को कहेंगे 'नष्ट हो गया' इस प्रकार कहकर द्रव्य को त्रिकालविषयी बना देते हैं।
भारत में मुख्यरूप से तीन प्रकार की विचारधारा पायी जाती है। परिणामवादी, संघातवादी, और आरंभवादी। सांख्य वस्तु का मात्र रूपांतर मानते हैं, अतः वे परिणामवादी; बौद्ध स्थूल को भी सूक्ष्म द्रव्यों का समूहमात्र मानते हैं, अतः समूहवादी; और वैशेषिक अनेकों द्रव्यों के संयोग से अपूर्व नवीन वस्तु या द्रव्य की उत्पत्ति मानते हैं, अतः वे आरंभवादी कहलाते हैं।
जैन दर्शन न आरंभवादी, न संघातवादी और न ही परिणामवादी है, वह कथंचित् सभी को मानता है।
यहाँ संपादक युगल द्वारा विवेचित एवं सिद्धसेन द्वारा निरूपित उत्पादादि में कालभिन्नता कार्य की पूर्णता की दृष्टि से है। प्रक्रिया की अपेक्षा से तो काल की अभिन्नता ही है।
सभी द्रव्य स्वतंत्र हैं:-सत् स्वयं अपने परिणमनशील स्वभाव के कारण परस्पर निमित्त-नैमित्तिक बनकर प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं। बाह्य और 1. सन्मतित. में संपादक युगल का विवेचन 3.35.37.295, 96. 2. वही 3 स.त. 3.37
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