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हैं तो इन्हें तीन रूप न मानकर एक रूप मानना चाहिए।'
उत्पाद, व्यय और धौव्य, इन तीनों की प्रतीति भिन्न-भिन्न होती है। इसे समंतभद्र ने इस प्रकार समझाया है-स्वर्ण घट का इच्छुक मानव स्वर्ण से मुकुट बनते समय दुःखी होता है और मुकुट का इच्छुक प्रसन्न ; परंतु स्वर्णप्रिय तो दोनों ही स्थिति में तटस्थ रहता है। दही नहीं खाने का संकल्प करने वाला दूध लेगा और जिसने दुध नहीं लेने का संकल्प लिया है वह दही लेगा; परंतु जिसने गोरस नहीं खाने का संकल्प लिया है वह न दूध लेगा और न दही।'
द्रव्य और पर्याय में कथंचित् अभेद है, क्योंकि उन दोनों में अव्यतिरेक पाया जाता है। द्रव्य और पर्याय कथंचित् भिन्न भी है, क्योंकि द्रव्य और पर्यायों में परिणाम का भेद है। द्रव्य में अनादि और अनंत रूप से परिणमन का प्रवाह है जबकि पर्यायों का परिणमन सादि और सांत है। द्रव्य शक्तिमान् है। पर्याय शक्तिरूप एक की द्रव्य संज्ञा है दूसरे की पर्याय संज्ञा। द्रव्य एक है, पर्यायें अनेक। द्रव्य का लक्षण अलग है, पर्याय का लक्षण अलग है। प्रयोजन भी दोनों के भिन्न हैं, क्योंकि द्रव्य अन्वयज्ञानादि कराता है जबकि पर्याय व्यतिरेक ज्ञान कराता है। द्रव्य त्रिकालगोचर है जबकि पर्याय वर्तमानगोचर। इन नाना कारणों और लक्षणों से द्रव्य की भिन्नता भी है और अभिन्नता भी।' द्रव्य गुण नहीं है और गुण द्रव्य नहीं।'
द्रव्य में ऐकांतिक प्रतिपादन के दूषणः-प्रख्यात दार्शनिक एवं तार्किक आचार्य समंतभद्र एकांतवाद में आने वाले दूषणों का आप्तमीमांसा में विशद विश्लेषण करते हैं।
बौद्ध दर्शन की शाखा शून्यवाद के अनुसार एक मात्र अभाव ही प्रमाण है। उनके अनुसार अभाव ही सत्य है, भाव तो स्वप्नज्ञान की तरह मिथ्या है। स्वप्न का ज्ञान अनेकों की अपेक्षा स्वप्नदर्शी को ही होता है और वह स्वप्न तक ही सीमित होता है। जगत का ज्ञान अनेकों को होता है, अधिक 1. यद्युत्पादादयो...कथमेकं त्रयात्मकम् स्याद्वादम. में उद्धृत 21.199 2. घटमौलीसुवर्णार्थी...सहेतुकम् आ.मी. 3.56 3. पयोव्रती न दध्यति...त्रयात्मकम् 3.60 4. द्रव्यपर्याययोरेवयं...नानात्वं न सर्वथा आ.मी. 4.71.72 5. प्र.सा. 108.
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