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हैं। यहाँ यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि द्रव्य के उत्पाद, व्यय और धौव्य परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न? दार्शनिकों ने इस प्रश्न की गंभीरता को समझा और अपनी पैनी प्रतिभा से इस प्रश्न को निम्न प्रकार से समाहित किया।
जैन दार्शनिक स्याद्वाद की नींव पर ही समस्त जिज्ञासाओं का समाधान खोजते हैं। उनके दृष्टिकोण में एकांतवाद मिथ्या है। अतः उन्होंने वस्तु के स्वरूप को भी कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न कहा है। सत् को त्रिलक्षणात्मक कहा। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि इनमें परस्पर भिन्नता है। परंतु ये एक वस्तु के उत्पाद-व्यय को दूसरी वस्तु में लेकर नहीं जा सकते, अतः अभिन्नता है। जैसे रूप, रस आदि के लक्षण अलग हैं, अतः इनमें भेद है, परंतु ये परस्पर में सापेक्ष है, अत: अभिन्न भी हैं।
___ न तो उत्पाद स्वतंत्र है और न पदार्थ। इस प्रकार एक ही द्रव्य में भेद और अभेद, दोनों पाये जाते हैं। जो गुण है वह उत्पाद नहीं, जो उत्पाद है वह पर्याय नहीं, इन तीनों का संयुक्त स्वरूप ही अस्तित्व का सूचक है.
और प्रमाण का विषय होने से भेद, अभेद दोनों ही वास्तविक हैं, काल्पनिक नहीं। गौण और प्रधान की अपेक्षा से भेद और अभेद दोनों अविरोधी हैं।'
प्रख्यात दार्शनिक संत श्री कुंदकुंदाचार्य ने प्रवचन सार में "उत्पाद के अभाव में व्यय नहीं होता और व्यय के अभाव में उत्पाद नहीं होता है। उत्पाद और व्यय, दोनों ही धौव्य के ही आश्रित हैं" कहकर भिन्नता और अभिन्नता स्वीकार की है।'
आगे इसी को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में और पर्यायें नियम से द्रव्याश्रित होती है।
द्रव्य स्वयं ही गुणांतर रूप से परिणमित होता है। द्रव्य की सत्ता गुणपर्यायों की सत्ता के साथ अभिन्न है, अतः गुणपर्याय ही द्रव्य है। टीकाकार अमृतचंद्राचार्य ने इसे वृक्ष के उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया है। 1. ननूसादादयः परस्परं भिद्यते-अन्योन्यापेक्षाणामुत्पादादीनां वस्तूनि सत्वं प्रतिपतुत्तव्यं षड्द. समु.टी. 57.258 2. प्रमाणगोचरौ संतौ-गुणमुख्यविवक्षया आ.मी. 2.36 3. ण भदि भंगविहीणो...धोब्वेण अल्पेण प्र.सा. 100. 4. उपादट्ठिदिभंगा-दव्वं वदि सव्वं प्र.सा. 101. 5. परिणमदि सयं दवं...दबमेवत्ति प्र.सा. 10.4 एवं गुणपर्यय बत् द्रव्यम् त.सू. 5.37
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