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भेदग्राही दृष्टिकोण को विशेष कहते हैं, इन्हें नय की भाषा में क्रमशः द्रव्यास्तिक
और पर्यायास्तिक कहते हैं। जगत के सभी पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होते हैं। सामान्य को अनुवृत्त एवं विशेष को व्यावृत्त भी कहते हैं। प्रत्येक वस्तु में सत् आदि रूप की समानता होने से अनुवृत्ति एवं विसदृशता होने के कारण व्यावृत्ति रूप ज्ञान का हेतु पाया जाता है।
पूर्व पर्याय का व्यय और नवीन पर्याय का उत्पाद, इन दोनों अवस्थाओं में द्रव्यत्व की स्थिति अविच्छिन्न रूप से रहने से इसे नित्य परिणामी कहते हैं, और इस स्वभाव में ही अर्थक्रिया संभव है।
सामान्य के दो भेद हैं- तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य। समान परिणाम को तिर्यक् सामान्य एवं पूर्व व उत्तर पर्याय में रहने वाले को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं।
ऊर्ध्वता सामान्य अपनी कालक्रम से होने वाली क्रमिक पर्यायों में ऊपर से नीचे तक व्याप्त रहता है, साथ ही सहभावी गुणों को भी व्याप्त करता है। तिर्यक् सामान्य तिरछा चलता है। अनेक स्वतंत्रसत्ताक मनुष्यों में सादृश्यमूलक जाति की अपेक्षा मनुष्यत्व की सामान्य कल्पना तिर्यक् सामान्य कहलाती है।'
प्रवचनसार की टीका में भी लगभग इसी से मिलती-जुलती व्याख्या है। वस्तु ऊर्ध्वतासामान्यरूप द्रव्य में, सहभावी विशेष स्वरूप गुणों में एवं क्रमभावीविशेष स्वरूप पर्यायों में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय है।*
जितने भी पदार्थ इस सृष्टि में है, वे सब सामान्य समुदायात्मक (गुणसमुदायात्मक) और आयातसामान्य समुदायात्मक (पर्यायसमुदायात्मक) द्रव्य से रचित होने के कारण द्रव्यमय हैं।'
उत्पादादि भिन्न भी अभिन्न भीः-द्रव्य को हम त्रिलक्षणयुक्त सिद्ध कर आये 1. अनुवृत्तव्यावृतप्रत्ययगोचरत्वात् पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्ति-स्थिति-लक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपतेश्च. अष्टस.
पृ. 162. 2. सदृशपरिणामस्तिर्यक्खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् एवं परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु. अष्टस.
पृ. 164 3. पं. महेन्द्रकुमारमजी: जैन दर्शन पृ. 481 4. वस्तु पुनरुव॑तासामान्यलक्षणे...निवर्तितनिवृत्तिमच्च प्र.सा.त.प्र. 10. 5. इह खलु यः कश्चन परिच्छिद्यमान...नित्तत्वाद्रव्यमय: प्र.सा.प्र. 93.
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