________________
पर्याय क्रमवर्ती कहलाते हैं।' सहभावी धर्म तत्व की स्थिति और क्रमभावी धर्म तत्व की गतिशीलता के सूचक होते हैं। पर्याय परिणमन प्रतिपल होता रहता है। जैसे चावल को पकाने के लिये बर्तन में डाला और उसे आग पर रखा। वह आधे घंटे में पके तो यह नहीं समझना चाहिये कि 29 या 29.5 मिनिट में वह ज्यों का त्यों रहा और मात्र अंतिम क्षण में पक गया।
उसमें सूक्ष्मरूप से परिवर्तन प्रथम समय में ही प्रारंभ हो गया था। अगर प्रथम क्षण से परिवर्तन प्रारंभ नहीं होता तो दूसरे क्षण में परिवर्तन संभव ही नहीं है।'
__वादीदेव सूरि ने पर्याय एवं गुण को विशेष के दो प्रकार बताये हैं एवं सहभावी धर्म को गुण की संज्ञा दी है। ज्ञान शक्ति आदि आत्मा के गुण हैं, जिनका कभी नाश नहीं होता। अगर जीव का ज्ञानादि गुण समाप्त हो सकता तो वह अजीव हो जाता और इस प्रकार, द्रव्य की इस मूल व्याख्या का ही लोप हो जाता कि “द्रव्य से द्रव्यांतर" नहीं होता।
द्रव्य की उत्पादव्ययात्मक जो पर्यायें हैं, वे क्रमभावी हैं, जैसे- सुख, दु:ख, हर्ष आदि।
टीकाकार रत्नप्रभाचार्य ने गुण और पर्याय की इस भिन्नता का कारण काल को बताया है।
न्यायविनिश्चय में भी द्रव्य में गुणों को सहभावी एवं पर्याय को क्रमभावी कहा है।'
स्वजाति का त्याग किये बिना द्रव्य में दो प्रकार के परिणमन होते हैं, अनादि एवं आदिमान। सुमेरु पर्वत आदि के आकार इत्यादि अनादि परिणाम हैं। आदिमान दो प्रकार का है, एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक। स्वाभाविक को वैस्रसिक भी कहते हैं। कर्मों के उपशम होने के कारण जीव 1. यथा व्यावहारिकस्य... च न स्यादिति त. वा. 5.22.. 2. "विशेषोपि द्विरूपो गुणः पर्यायश्चेति, गुणः सहभावी धर्मो यथात्मानि विज्ञानव्यक्तिशक्तयादिरिति" प्रमाण न. 5.6.7. 3. पर्यायस्तु क्रमभावी यथा तत्रैव सुखदुःखादिरिति” प्रमाण न. 5.8. 4. स्याद्वाद. म 5.8.736. 5. गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ते सहक्रमप्रवृत्तयः" न्यायवि. भू. 1.115.428.
24
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org