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धर्मपरीक्षा-१ धर्मो गणेशेने परीक्षितो यः कथं परीक्षे तेमहं जडात्मा। शक्तो हि यं भक्तुमिभाधिराजः स भज्यते किं शशकेने वृक्षः ॥१५ प्राज्ञैर्मुनीन्द्रै 'विहितेप्रवेशे मम प्रवेशो ऽस्ति जडस्य धर्मे । मुक्तामणौ कि कुलिशेनं विद्धे प्रवर्तते ऽन्तः शिथिलं न सूत्रम् ॥१६ द्वीपो ऽथ जम्बूद्रुमचारुचिह्नः परिस्फुरद्रत्नविभासिताशः। द्वीपान्तरैरस्त्यभितः सुवृत्तश्चक्री क्षितीशैरिव सेव्यमानः॥१७ तद्धारतं क्षेत्रमिहास्ति भव्यं हिमाद्रिवाधित्रयमध्यवति । आरोपितज्यं मदनस्य चापं जित्वा श्रिया यन्निजया विभाति ॥१८
१५) १. क जिनेन । २. धर्मम् । ३. यो वृक्षः । ४. क ससो। १६) १. क गौतमादिभिः । २. कृते प्रवेशे। ३. वज्रण; क हीराकणी । ४. सति । १७) १. समस्तः [समन्ततः] । १८) १. क जंबूद्वीपे । २. मनोज्ञम् । ३. सजिव [ सजीवा ] कृतम् ।
जिस धर्मकी परीक्षा जिनेन्द्र या गणधरने की है उसकी परीक्षा मुझ जैसा मूर्ख कैसे कर सकता है ? नहीं कर सकता। ठीक है-जिस वृक्षके भंग करनेमें केवल गजराज समर्थ है उस वृक्षको क्या कभी खरगोश भंग कर सकता है ? नहीं कर सकता है ।।१५।।
जिस धर्मके भीतर अतिशय बुद्धिमान मुनीन्द्र (गणधरादि) प्रवेश कर चुके हैं उस धर्मके भीतर मुझ जैसे जड़बुद्धिका भी प्रवेश सरलतासे हो सकता है। ठीक है-जो मणि वज्रके द्वारा वेधा जा चुका है जिसके भीतर कठोर वज्र प्रवेश पा चुका है-उसके भीतर क्या शिथिल धागा नहीं प्रविष्ट हो सकता है ? वह तो सरलतासे प्रवेश पा जाता है ॥१६।।
यहाँ सब द्वीपोंके मध्य में स्थित एक जम्बूद्वीप है जो कि चक्रवर्तीके समान सुशोभित होता है-चक्रवर्ती यदि सुन्दर ध्वजा आदिसे चिह्नित होता है तो वह द्वीप जम्बूवृक्षसे चिह्नित है, चक्रवर्ती जिस प्रकार आभूषणोंमें खचित अनेक प्रकारके रत्नों द्वारा आशाओंदिशाओं--को प्रकाशित करता है अथवा मूल्यवान रत्नोंको देकर दूसरोंकी आशाओंइच्छाओं को पूर्ण किया करता है उसी प्रकारसे वह जम्बूद्वीप भी अपने भीतर स्थित देदीप्यमान रत्नोंसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित करता है तथा उन्हें देकर जनोंकी इच्छाओंको भी पूरा करता है, सुवृत्त (सदाचारी) जैसे चक्रवर्ती होता है वैसे ही वह जम्बूद्वीप भी सुवृत्त ( अतिशय गोल ) है, तथा चंक्रवर्ती जहाँ अनेक राजाओंसे घिरा रहता है वहाँ वह द्वीप अनेक द्वीपान्तरोंसे घिरा हुआ है । इस प्रकार वह द्वीप सर्वथा चक्रवर्तीकी उपमाको प्राप्त है ॥१७॥
इस जम्बूद्वीपके भीतर एक सुन्दर भारतवर्ष है जो कि हिमालय पर्वत और तीन (पूर्व, पश्चिम और दक्षिण) समुद्रोंके मध्यमें स्थित है। इसीसे वह धनुषके आकारको धारण करता हुआ मानो अपनी छटासे चढ़ी हुई डोरीसे सुसज्जित कामदेवके धनुपपर ही विजय पा रहा है ॥१८॥ १५) ड शक्नोति यं । १६) अ ड विहिते प्रवेशे । १८) इ आरोपितं यन्मदं ।
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