________________
धर्म और समाज
शायद इसीलिए वह धर्म अभीतक किसी अन्यतम महात्माको पैदा नहीं कर -सका और स्वयं स्वतन्त्रता के लिए उत्पन्न होकर भी उसने अपने अनुयायियोंको
अनेक सामाजिक तथा राजकीय बन्धनोंसे जकड़ दिया । हिन्दु धर्मकी शाखाओंका भी यही हाल है । वैदिक हो, बौद्ध हो या जैन, सभी धर्म स्वतन्त्रताका दावा तो बहुत करते हैं, फिर भी उनके अनुयायी जीवन के हरेक क्षेत्र में अधिकसे अधिक गुलाम हैं। यह स्थिति अब विचारकों के दिलमें खटकने लगी है । वे सोचते हैं कि जब तक बुद्धि, विचार और तर्कके साथ धर्मका विरोध समझा जायगा तब तक उस धर्मसे किसीका भला नहीं हो सकता । यही विचार आजकल के युवकों की मानसिक क्रान्तिका एक प्रधान लक्षण है ।
राजनीति, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास और विज्ञान आदि का अभ्यास तथा चिन्तन इतना अधिक होने लगा है कि उससे युवकोंके विचारों में स्वतन्त्रता तथा उनके प्रकाशनमें निर्भयता दिखाई देने लगी है। इधर धर्मगुरु और धर्मपंडितोंका उन नवीन विद्याओं से परिचय नहीं होता, इस कारण वे अपने पुराने, बहमी, संकुचित और भीरु खयालोंमें ही विचरते रहते हैं। ज्यों ही युवकवर्ग अपने स्वतन्त्र विचार प्रकट करने लगता है त्यों ही धर्मजीवी महात्मा घबड़ाने और कहने लगते हैं कि विद्या और विचारने ही तो धर्मका नाश शुरू किया है । जैनसमाजकी ऐसी ही एक ताजी घटना है। अहमदावाद में एक ग्रेज्युएट वकीलने जो मध्य श्रेणीके निर्भय विचारक है, धर्मके व्यावहारिक स्वरूपपर कुछ विचार प्रकट किये कि चारों ओरसे विचारके कब्रस्तानोंसे धर्म-गुरुओंकी आत्मायें जाग पड़ी । हलचल होने लग गई कि ऐसा विचार प्रकट क्यों किया गया और उस विचारकको जैनधर्मोचित सजा क्या
और कितनी दी जाय ? सजा ऐसी हो कि हिंसात्मक भी न समझी जाय और हिंसात्मक सजासे अधिक कठोर भी सिद्ध हो, जिससे आगे कोई स्वतन्त्र और निर्भय भावसे धार्मिक विषयोंकी समीक्षा न करे। हम जब जैनसमा की ऐसी ही पुरानी घटनाओं तथा आधुनिक घटनाओंपर विचार करते हैं तब हमें एक ही बात मालूम होती है और वह यह कि लोगों के खयालमें धर्म और विचारका विरोध ही अँच गया है । इस जगह हमें थोड़ी गहराईसे विचार-विश्लेषण करना होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org