Book Title: Dharma aur Samaj
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
Publisher: Hemchandra Modi Pustakmala Mumbai

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Page 219
________________ धर्म और समाज उन्हें शिक्षा दी जा सकती है, उद्योग सिखाकर स्वावलम्बी बनाया जा सकता है, उसी धन, शक्ति और समयका अधिकतर उपयोग प्रत्येक धर्मगुरु अपनी आडंबर - सजित जीवन-गाड़ी चलाते रहने में किया करता है । स्वयं शरीरश्रम करना छोड़ देता है किन्तु अन्यके श्रम के फलोंका भोग नहीं छोड़ता । स्वयं सेवा करना छोड़ देता है किन्तु सेवा लेना नहीं छोड़ता । बन सके उतना उत्तरदायित्व छोड़ देने में धर्म मानता है किन्तु खुदके प्रति दूसरे लोग उत्तरदायित्व न भूलें, इसकी पूरी चिन्ता रखता है । सम्प्रदायके दे रूढ़ शिक्षा - रसिक अगुए गृहस्थ, अपने जीवनमें राजाओंके समान असदाचारी होते हैं, मनमाना भोग करते हैं और चाहे जितनोंको वंचित करके कमसे कम श्रमसे अधिकसे अधिक पूँजी एकत्र करनेका प्रयत्न करते हैं । जब तक अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं तब तक तो व्यवसायमें प्रामाणिकता रखते हैं किन्तु जरा-सी जोखिम आ पड़नेपर टाट उलट देते हैं। ऐसी परिस्थिति में चाहे जितना जोर लगाया जाय किन्तु रूढ़ धर्म - शिक्षा के विषय में स्वतंत्र और निर्भय विचारक आन्तरिक और बाह्य विरोध रखेंगे ही। यदि वस्तुस्थिति ऐसी है और ऐसी ही रहनेकी है, तो अधिक सुन्दर और सुरक्षित मार्ग यह है कि जो उभय पक्ष-सम्मत हो उसी धर्मतत्त्वकी शिक्षाका प्रबन्ध सावधानी से किया जाय । २०२ धर्मतत्त्वमें मुख्य रूपसे दो अंश होते हैं, एक आचारका और दूसरा विचारका । जहाँ तक आचरणकी शिक्षाका संबंध है, निरपवाद एक ही विधान संभव हो सकता है और वह यह कि यदि किसीको सदाचरणकी शिक्षा देना हो तो वह सदाचारमय जीवनसे ही दी जा सकती है, केवल वाणी से नहीं दी जा सकती । सदाचरण वस्तु ही ऐसी है कि वह वाणीमें उतरते ही फीकी पड़ जाती है । यदि वह किसी के जीवन में अन्तस्तलसे उदित हुई हो, तो दूसरे को किसी न किसी अंशमें प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती । इसका अर्थ यह हुआ कि मानवताका पोषण करनेवाले जिस प्रकारके सदाचारको समाज में दाखिल करना हो, जब तक उस प्रकारका सदाचारी व्यक्ति कोई न मिले तब तक उस समाज या संस्थामें सदाचारकी शिक्षा के प्रश्नको हाथमें लेना निरी मूर्खता है । माता पिता या अन्य लोग बालकों के जीवनका जैसा निर्माण करना चाहते हों, उन्हें अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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