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विद्याकी चार भूमिकाएँ
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भी तभी स्पष्ट होता है। विद्यार्थी उसके पास आता है कुछ प्राप्त करनेकी श्रद्धासे । किन्तु श्रद्धा तभी सार्थक होती है, जब अध्यापक अपना उत्तरदायित्व समझता हो । इस प्रकार उच्च शिक्षाकी संस्थामें अधिकसे अधिक उत्तरदायित्व अध्यापकका होता है।
परन्तु केवल अध्यापकके उत्तरदायित्वसे ही विद्यार्थीका उद्धार नहीं हो सकता । जो अध्यापककी शरणमें आता है उसे स्वयं भी जिज्ञासु, परिश्रमी
और विद्या-परायण होना चाहिए । __स्वयं अध्यापकका भी एक ध्येय होता है। उसे भी नवीन संशोधन करना होता है। विद्यार्थियोंको मार्ग बताते समय, सूचना देते समय और उनसे कार्य लेते समय उसकी खुदकी सूझका भी विकास होता है और उसके नेतृत्वको गति मिलती है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि अच्छा संशोधक हमेशा अपने आसपास विद्यार्थियोंका मंडल रखना चाहता है । इतना ही नहीं, उसके साथ कुटुम्ब जैसा व्यवहार रखता है। कलकत्तमें और शान्तिनिकेतनमें मैंने ऐसे अध्यापक देखे हैं। ऐसे अध्यापकोंसे विद्यार्थी तो शंका या प्रश्न करके निश्चिन्त होकर घर जाकर सो सकते हैं किन्तु अध्यापककी तो अक्सर नींद ही उड़ जाती है । उसे ऐसा प्रतीत होता है कि विद्यार्थीकी शंकाका समाधान करनेके लिए उसने जो उत्तर दिया है वह अधूरा है । पूर्ण संतोषजनक उत्तर देनेपर ही उसे चैन मिलती है । जब विद्यार्थीको यह मालूम होता है तब अध्यापकके जीवनका रंग उसपर भी चढ़ जाता है।
विद्योपार्जनकी क्रिया वृक्ष जैसी होती है। सतत रस खींचते रहनेसे ही वह बढ़ता है और शाखा शाखा पत्र पत्रमें रस पहुँचा करता है ।।
लोग पूछते हैं कि क्या अहमदाबादमें संशोधन हो सकता है ? प्रश्न ठीक है क्योंकि अहमदाबादका धन कुछ जुदा ही है। फिर भी इस धनकी विशेष इच्छा रखनेवाले भी विद्या-धनकी इच्छा रखते हैं। अहमदाबाद इस विषयमें अपवाद नहीं हो सकता। हम जिसका उपार्जन करते हैं वह भी एक धन है । उस धनको प्राप्तकर झोंपड़ीमें रहकर भी सुखी रहा जा सकता है । जो व्यक्ति निरलस उत्साही है, जिसे अपनी बुद्धि और चारित्रके विकासमें ही धन्यता दिखाई देती है उसके लिए विद्योपार्जन धन्य व्यवसाय है। हम सब इच्छासे अथवा अनिच्छासे इस व्यवसायमें ढकेले गये हैं, फिर भी इसका उपयोग
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