Book Title: Dharma aur Samaj
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
Publisher: Hemchandra Modi Pustakmala Mumbai

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Page 222
________________ विद्याकी चार भूमिकाएँ २०५ - भी मेरी पगडंडीसे मुझे तो आनन्द और स्थिरता मिल रही है। मुझे विद्यार्थी जीवन चार विभागों अथवा भूमिकाओंमें विभाजित दिखाई देता है। प्राथमिकसे माध्यमिक तकका प्रथम विभाग, माध्यमिकसे उच्च शिक्षण तककाबी. ए. अथवा स्नातक होने तकका-द्वितीय, अनुस्नातकका तृतीय और। उसके बादका चतुर्थ । हमारी प्रारंभिक शिक्षा शब्द-प्रधान और स्मृति-प्रधान होती है। इसमें सीखनेवाले और सिखानेवाले दोनोंकी समझने और समझानेकी प्रवृत्ति भाषाके साधनद्वारा होती है। इसमें सीधा वस्तु-ग्रहण नहीं होता । केवल भाषाद्वारा जो संस्कार पड़ते हैं वे स्मृतिमें पकड़ रखे जाते हैं । यहाँ मैं जिसे भाषा कहता हूँ उसमें लिखना, बोलना, पढ़ना और उच्चारण करना सब कुछ आ जाता है। इस प्रवृतिसे समझ और तर्कशक्ति विशेष उत्तेजित होती है, किन्तु वह अधिक अंशोंमें आयुपर निर्भर है। । उसके बादकी दूसरी भूमिका संज्ञान अर्थात् समझ-प्रधान है। विद्यार्थी जब कालेजमें प्रविष्ट होता है उस समय भी भाषा और शब्दका महत्त्व तो रहता है, किन्तु इस भूमिकामें उसे विषयको पकड़कर चलना पड़ता है। इसीसे पाठ्यक्रम में बहुत-सी पुस्तकें होनेपर भी वे सभी पूरी हो जाती हैं। यदि उसे वहाँ भी केवल स्मृतिका आधार लेकर चलना पड़े तो ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए वहाँ शब्द नहीं, अर्थका महत्त्व होता है । इस अर्थ-ग्रहणकी पद्धतिमें अन्तर हो सकता है किन्तु मुख्य वस्तुस्थिति इसी प्रकारकी होती है। उसके बादकी भूमिकामें समझके सिवाय एक नया तत्त्व आता है । इसके पहलेकी भूमिकाओंमें शिक्षा, चर्चा, आलोचना इत्यादि सब दूसरोंकी ओरसे आता था और समझ लिया जाता था, किन्तु अब नृतीय भूमिकामें तारतम्य, परीक्षण-वृत्ति, किसी भी मतको अपनी बुद्धिपर कस कर देखनेकी परीक्षक-वृत्ति और भी शामिल हो जाती है। इस समय विद्यार्थी ऐसा कर सकनेकी उम्र में पहुँच गया होता है। अतः पहले जिस पुस्तक अथवा अध्यापकको वह प्रमाणभूत मानता था उसका भी विरोध करने को तैयार हो जाता है। इसके बादकी भूमिका पी० एच० डी० होनेके लिए की जानेवाली प्रवृत्ति है । शब्दप्रधान, समझप्रधान, विवेकप्रधान और परीक्षाप्रधान विद्याध्ययनका उपयोग इस भूमिकामें होता है। इसमें जो विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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