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धार्मिक शिक्षाका प्रश्न
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जीवनको वैसा ही बनाना चाहिए और यदि वे ऐसा नहीं कर सकते हों तो उन्हें अपनी संततिके जीवनमें सदाचरण लानेकी आशा नहीं करनी चाहिए । कोई भी संस्था किरायेके नकली शिक्षक रखकर विद्यार्थियोंमें सदाचारका बातावरण उत्पन्न नहीं कर सकती। यह व्यवहारका विषय है और व्यवहार सच्चा या झूठा देखादेखीमेंसे उत्पन्न होनेके बाद ही विचारके या संस्कारके गहरे प्रदेश तक अपनी जड़ें पहुंचाता है।
धर्म-शिक्षाका दूसरा अंश विचार है-ज्ञान है। कोई भी संस्था अपने विद्यार्थियोंमें विचार और ज्ञानके अंश सिंचित और पोषित कर सकती है। इस तरह प्रत्येक संस्थाके लिए राजमार्गके रूपमें धार्मिक शिक्षाका एक ही विषय बाकी रहता है और वह है ज्ञान तथा विचारका ।
इस अंशके लिए संस्था जितना उदात्त प्रबंध करेगी उतनी सफलता अवश्य मिलेगी। प्रत्येक विद्यार्थीको जाननेकी कम या अधिक भूख होती ही है। उसकी भूखकी नाड़ी यदि ठीक ठीक परख ली जाय तो वह विशेष तेज भी की जा सकती है। इसलिए विद्यार्थियोंमें विविध प्रकारसे तत्त्व-जिज्ञासा पैदा करनेका आयोजन करना सस्थाका प्रथम कर्तव्य है। इस आयोजनमें समृद्ध पुस्तकालय और विचारपूर्ण विविध विषयोंपर व्याख्यानोंका प्रबंध आवश्यक है। साथ ही सम्पूर्ण आयोजनका केन्द्र ज्ञान और विचारमूर्ति शिक्षक और उसकी सर्वग्राहिणी
और प्रतिक्षण नवनवताका अनुभव करनेवाली दृष्टि भी चाहिए। जो संस्था ऐसे शिक्षकको प्राप्त करनेका सौभाग्य प्राप्त करती है उस सस्थामें ऐसी धर्मशिक्षा अनिवार्य रूपसे फैलेगी और बढ़ेगी ही, जो विचार करनेके लिए काफी होती है । करनेकी बात आनेपर विद्यार्थी जरा-सा कष्टका अनुभव करता है किन्तु जाननेका प्रश्न सामने आनेपर उसका मस्तिष्क अनुकूल शिक्षकके सन्निधानमें जिज्ञासाको लिए हुए हमेशा तैयार रहता है। प्रतिभाशाली अध्यापक ऐसे अवसरसे लाभ उठाता है और विद्यार्थीमें उदार तथा व्यापक विचारों के बीजोंका वपन करता है । संस्थाएँ धार्मिक शिक्षाका आयोजन करके भी वास्तवमें जो विद्यार्थीके लिए करना चाहिए, उस कार्यको पूर्ण नहीं करती और जिस धार्मिक कहे जाने-- वाले अंशमें विद्यार्थीको अथवा स्वयं शिक्षकको रस नहीं होता उस अंशपर परम्पराके मोहके कारण अथवा अमुक वर्गके अनुसरणके कारण भार देकर दोनों चीजें खो देती हैं । शक्य विचारांशकी जातिमें बाधा पहुँचती है
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