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धार्मिक शिक्षाका प्रश्न
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चाहिए और विवादास्पद तत्त्वके विषयमें एकान्तिक विधान या व्यवस्था न करके उसे शिक्षार्थीकी रुचि और विचारपर छोड़ देना चाहिए।
जो लोग धार्मिक पाठ और क्रियाकाण्डके पक्षपाती हैं उन्होंने यदि अपने जीवनसे यह सिद्ध किया होता कि परम्परागत धार्मिक क्रियाकांडका सेवन करनेवाले अपने जीवन-व्यवहारमें दूसरोंकी अपेक्षा अधिक सच्चे होते हैं और सादा जीवन व्यतीत कर अपनी चालू धर्म-प्रथा द्वारा मानवताकी अधिक सेवा करते हैं, तो वैसी शिक्षाका विरोध करनेका कोई कारण ही न होता। किन्तु इतिहास इससे विपरीत कहता है। जिस जिस जाति या समाजने रूढ़ धर्मशिक्षा अधिक पाई. है, उस जाति या कौमने दूसरी जाति या कौमकी अपेक्षा भेद-भावनाका अधिक पोषण किया है । सबसे अधिक क्रिया-काण्डी शिक्षाका अभिमान रखनेवाली ब्राह्मण या हिन्दू जाति दूसरे समाजोंकी अपेक्षा अधिक भेदोंमें बँट गई है, और अधिक दाम्भिक साथ ही डरपोक बन गई है। ज्यों ज्यों धार्मिक शिक्षा विविध और अधिक हो, त्यों त्यो जीवनकी समृद्धि भी विविध और अधिक होनी चाहिए। किन्तु इतिहास कहता है कि धर्मपरायण मानी जानेवाली जातियाँ धर्मके द्वारा परस्पर जुड़नेके बजाय एक दूसरेसे अलग होती गई हैं । इस्लाम धर्मकी रूढ़ शिक्षाने यदि अमुक वर्गको अमुक अंशमें जोड़ा है तो उससे बड़े वर्गको अनेक अंशोंमें प्रथम वर्गका विरोधी मानकर मानवताको खंडित भी किया है । ईसाई धर्मकी रूढ़ शिक्षाने भी मानवताको खंडित किया है। अमुक धर्म अपने रूढ़ शिक्षणके बलसे यदि अमुक परिमाणमें मानव-वर्गको भीतर ही भीतर जोड़नेका पुण्य करता है तो उससे भी बहुत बड़े वर्गको अपना विरोधी माननेका महापाप भी करता है । यह तो रूढ़ शिक्षा-जन्य मानवताके खंडित होनेकी कथा हुई। यदि सम्प्रदायकी रूढ़ शिक्षा अपने सम्प्रदाय के लिए भी सरल, प्रामाणिक और परार्थी जीवन बनानेवाली होती तब भी धार्मिक शिक्षाका विरोध करनेवालेको विरोध करनेका कारण नहीं मिल सकता । किन्तु इतिहास दूसरी ही कथा कहता है । किसी एक सम्प्रदायके प्रधान माने जानेवाले धर्मगुरुओं अथवा मुख्य गृहस्थोंको लेकर विचार करें तो मालूम होगा कि प्रत्येक धर्मगुरु आडम्बरपूर्ण जीवनमें ही रस लेता है और अपने भोले अनुयायियोंके बीच उस आडंबरका धर्मके नामसे पोषण करता है । जिस धन, शक्ति और समयसे उस सम्प्रदायके अनुयायियोंका आरोग्य बढ़ सकता है,
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