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हरिजन और जैन
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खास वर्ग १ और वे कौन कौन ? इसके उत्तरके लिए बहुत दूर जानेकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हिन्दुस्तानमें पहलेसे ही अनेक जातियाँ और मानव-समाज आते और बसते रहे हैं। पर सभीने हिन्दसमाजमें स्थान नहीं पाया । हम जानते हैं कि मुसलमान व्यापारी और शासकके रूपमें इधर आये
और बसे, पर वे हिन्दूसमाजसे भिन्न ही रहे । इसी तरह हम यह भी जानते हैं कि मुसलमानोंके आनेके कुछ पहले और उसके बाद भी, विशेष रूपसे 'पारसी' हिन्दुस्तानमें आकर रहे हैं और उन्होंने मुसलमानोंकी तरह हिन्दुस्तानको अपनी मातृभूमि मान लिया है, फिर भी वे हिन्दू समाजसे पृथक् गिने जाते हैं । इसी तरह क्रिश्चियन और गोरी जातियाँ भी हिन्दुस्तानमें हैं, पर वे हिन्दसमाजका अंग नहीं बन सकी हैं। इस समस्त स्थितिका और हिन्दुसमाजमें गिनी जानेवाली जातियों और वर्गोके धार्मिक इतिहासका विचार करके स्व० लोकमान्य तिलक जैसे विचारकोंने 'हिन्दू' शब्दकी जो व्याख्या की है, वह पूर्णतया निर्दोष और सत्य है। इस व्याख्या के अनुसार जिनके पुण्य पुरुष और तीर्थस्थान हिन्दुस्तानको अपने देवों और ऋषियोंका जन्मस्थान अर्थात् अपनी तीर्थभूमि मानते हैं, वे सब 'हिन्दू' हैं, और उन सबका समाज ' हिन्दू-समाज' है।
जैनोंके लिए भी ऊपर कही हुई हिन्दूसमाजकी व्याख्या न माननेका कोई कारण नहीं हैं। जैनोंके सभी पुण्य पुरुष और पुण्य तीर्थ हिन्दुस्तानमें हैं। इसलिए जैन हिन्दूसमाजसे पृथक् नहीं हो सकते। उनको जुदा माननेकी प्रवृत्ति जितनी ऐतिहासिक दृष्टिसे भ्रान्त है उतनी ही अन्य अनेक दृष्टियोंसे भी। इसी भ्रान्त दृष्टिके वश 'हिन्दू' शब्दका केवल 'वैदिक परम्परा' अर्थ करके अज्ञानी और सम्प्रदायान्ध जैनोंको भ्रममें डाला जा रहा है । पर इस पक्षकी निस्सारता अब कुछ शिक्षित लोगोंके ध्यानमें आ गई है, इसलिए उन्होंने एक नया ही मुद्दा खड़ा किया है। उसके अनुसार जैन समाजको हिन्दुसमाजका अंग मानकर भी धर्मकी दृष्टि से जैनधर्मको हिन्दू धर्मसे भिन्न माना जाता है। अब जरा इसी प्रश्नकी मीमांसा कर ली जाय ।
अंग्रेजी शासनके बाद मनुष्य-गणनाकी सुविधाके लिए ' हिन्दू धर्म' शब्द बहुत प्रचलित और रूढ़ हो गया है। हिन्दूसमाजमें शामिल अनेक वर्गाके
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