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धर्म और समाज
ध्येय है और वही जैन धर्मका असली प्राण है। वह ध्येय है"मानवताके सर्वांगीण विकासमें आनेवाली सभी बाधाओंको हटाकर सार्वत्रिक निरपवाद भूतदयाका आचारण करना, अर्थात् आत्मौपम्य के सिद्धान्तके आधारसे प्राणिमात्रको और खासकर मनुष्यमात्रको ऊँच-नीच, गरीबी-अमीरी या इसी प्रकारके जातिगत भेद-भावके विना सुख सुविधा और विकासका पूर्ण अवसर देना।" इस मूलभूत ध्येयसे जैन धर्मके नीचे लिखे विशिष्ट लक्षण 'फलित होते हैं
१-किसी भी देवी देवताके भय या अनुग्रहसे जीनेके अन्ध-विश्वाससे मुक्ति 'पाना।
२-ऐसी मुक्ति के बाधक शास्त्र या परम्पराओंको प्रमाण माननेसे इंकार करना।
३-ऐसे शास्त्र या परम्पराओंके ऊपर एकाधिपत्य रखनेवाले और उन्हींके आधारसे जगत्में अन्धविश्वासोंकी पुष्टि करनेवाले वर्गको गुरु माननेसे इंकार करना ।
४-जो शास्त्र या जो गुरु किसी न किसी प्रकार हिंसाका या धर्मक्षेत्रमें मानव-मानवके बीच असमानताका स्थापन या पोषण करते हों, उनका विरोध करना और साथ ही गुणकी दृष्टिसे सबके लिए धर्मके द्वार खुले रखना।
इनसे तथा इनसे फलित होनेवाले धर्मके दूसरे ऐसे ही लक्षणोंसे जैनधर्मकी आत्मा पहिचानी जा सकती है। इन्हीं लक्षणोंसे जैन आचार-विचारका और उसके प्रतिपादक शास्त्रोंका स्वरूप बना है। जैन भगवान् महावीर या ऐसे ही किसी पुरुषको क्रान्तिकारी सुधारक या पूज्य समझते हैं । उनके सुधारकत्व या पूज्यत्वकी कसौटी पूर्वोक्त जैनधर्मके प्राणोंको अपने जीवनमें उतारनेकी शक्ति और प्रवृत्ति ही है । जिनमें यह शक्ति न हो उन्हें जैन गुरु या पूज्य नहीं मान सकते। और जो इस ध्येयके मानने या मनवानेमें बाधा डालता है, उसके पीछे जैन नहीं चल सकते। इस सम्बन्धमें किसी भी जैनको किसी प्रकारकी आपत्ति नहीं हो सकती। जैनधर्मका विचार इस दृष्टिसे ही हो सकता है। इसीलिए हम देखते हैं कि जैनधर्मके अनुयायी सदासे धर्मके निमित्त होनेवाली हिंसाका विरोध करते आये हैं और अहिंसाकी प्रतिष्ठामें अपना पूरा-पूरा हिस्सा
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