________________
विचार-कणिका
१७१
वैयक्तिक चित्त-शुद्धिका आदर्श होना चाहिए । और यदि वह हो, तो किसी स्थानान्तर या लोकान्तरमें मुक्ति-धाम मानने या कल्पित करनेकी तनिक भी आवश्यकता नहीं। वैसा धाम तो सामूहिक चित्तकी शुद्धिमें अपनी शुद्धिकी देन देना ही है।
४-प्रत्येक संप्रदायमें सर्वभूतहितको महत्त्व दिया गया है। किन्तु व्यवहारमें मानव-समाजके भी हितका पूर्णरूपसे आचरण मुश्किलसे दीखता है । अतएव प्रश्न यह है कि मुख्य लक्ष्य कौन-सी दिशामें और किस ध्येयकी
ओर देना चाहिए । प्रस्तुतमें दोनों लेखकोंकी विचारसरणी स्पष्ट रूपसे प्रथम मानवताके विकासकी ओर लक्ष्य देने और तदनुसार ही जीवन जीनेकी ओर संकेत करती है। मानवताके विकासका मतलब है मानवताने आज तक जिन सद्गुणोंकी जितनी मात्रामें सिद्धि की है उनकी पूर्णरूपसे रक्षा करना और तद्वारा उन्हीं सद्गुणोंमें अधिक संशुद्धि लाना और नये सद्गुणोंका विकास करना, जिससे कि मानव-मानवके बीच द्वन्द्व और शत्रुताके तामस-बल प्रकट. न हो सके। जितने प्रमाणमें इस प्रकार मानवता-विकासका ध्येय सिद्ध होगा उतने ही प्रमाणमें समाज-जीवन संवादी और एकतान बनेगा। इसका प्रासंगिक फल सर्वभूतहित ही होगा। अतएव प्रत्येक साधकके प्रयत्नकी मुख्य दिशा मानवताके विकास की ही होनी चाहिए। यह सिद्धान्त भी सामूहिक जीवनकी दृष्टिसे कर्म-फलका नियम घटित करनेके विचारमेंसे ही फलित होता है ।
उक्त विचारसरणीसे गृहस्थाश्रमको केन्द्रमें रखकर सामुदायिक जीवनके साथ वैयक्तिक जीवनका सुमेल रखनेकी सूचना मिलती है । गृहस्थाश्रममें ही शेष सभी आश्रमोंके सद्गुणोंको सिद्ध करनेका अवसर मिल जाता है। क्योंकि तदनुसार गृहस्थाश्रमका आदर्श ही इस प्रकारसे बदल जाता है कि वह केवल भोगका धाम न रह कर भोग और योगके सुमेलका धाम बन जाता है । अतएव गृहस्थाश्रमसे विच्छिन्न रूपमें अन्य आश्रमोंका विचार प्राप्त नहीं होता । गृहस्थाश्रम ही चतुराश्रमके समग्र जीवनका प्रतीक बन जाता है। यही वस्तु नैसर्गिक भी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org