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मंगल प्रवचन
श्रीयुत मोतीचन्द भाईने मेरे परिचय में कहा है कि मैं बीसवीं शताब्दीके विचारप्रवाहों और दृष्टि - बिन्दुओंसे परिचित हूँ । उनके इस कथनमें यदि सत्य है तो मैं अपनी दृष्टिसे उसका स्पष्टीकरण करना चाहता हूँ । ८०० की जनसंख्यावाले एक छोटेसे गन्दे गाँव में मेरा जन्म और पालन हुआ, जहाँ आधुनिक संस्कारों, शिक्षा और साधनोंका सर्वथा अभाव था, ऐसे वातावरणमें, उन्नीसवीं शताब्दी में मैं पला और पढ़ा लिखा । गुजराती ग्रामीण पाठशाला से आगे मेरे लिए शिक्षाका कोई वातावरण था ही नहीं। मुझे जहाँ तक याद है, मैंने कोई बीसेक वर्ष की उम्र में एक साम्प्रदायिक मासिक पत्रका नाम सुना था । १९ वीं अथवा २० वीं शताब्दीके कालेजों और विश्वविद्यालयकी शिक्षाका लाभ मुझे नहीं मिला। इस दृष्टिसे मुझे १९ वींका ही क्यों एक तरह से चौदहवीं शताब्दीका गिनना चाहिए ।
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यह सब सत्य होते हुए भी उनके कथनानुसार यदि मैं २० वीं शताब्दीका हूँ तो वह इसी अर्थ में कि किसी भी काल, देश और विषयके प्राचीन अथवा नवीन विचार जिस समय मेरे सामने आते हैं उस समय मैं उनका सभी प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त होकर विचार करता हूँ और यथाशक्ति सत्यासत्यका निर्णय करनेका प्रयत्न करता हूँ । इस प्रयत्नमें जाति, धर्म, सम्प्रदाय, शास्त्र अथवा भाषा कदाग्रह या पूर्वग्रह मुझे शायद ही जकड़ रखते होंगे । मैं आचरण कर सकता हूँ या नहीं, यह प्रश्न पुरुषार्थका है किन्तु जिज्ञासा और विचारकी दृष्टिसे मैं अपने मनके सभी द्वार पूर्ण रूपसे खुले रखता हूँ । मुझे इसकी पूरी चिन्ता रहती है कि कोई ज्ञातव्य सत्यांश पूर्वग्रह और उपेक्षाके कारण छूट न जाय । मनको पूर्वग्रहों और संकुचितताके बन्धनोंसे परे रखकर तथ्य जानने, विचारने और स्वीकार करनेकी ओर रुचि और तत्परता रखना ही यदि २० वीं शताब्दीका लक्षण हो तो मैं उस अर्थ में अवश्य ही २० वीं शताब्दीका हूँ, चाहे
* ता० १४|५|४५ के दिन नये वर्ष के सत्रारंभके प्रसंगपर श्रीमहावीर - जैनविद्यालय के विद्यार्थियोंके समक्ष किया हुआ मंगल प्रवचन ।
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