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मंगल प्रवचन
हैं कि व्यापारवृत्ति के माता-पिता अपनी सन्ततिके लिए अधिक से अधिक सम्पत्तिका उत्तराधिकार दे जानेकी इच्छा रखते हैं। वे कई पीढ़ी तककी स्वसंतति के सुखकी चिन्ता करते हैं किन्तु इसका परिणाम उलटा ही होता है और उनकी संतति सुखकी धारणा धूल में मिल जाती है । इसलिए मेरी दृष्टिसे जीवन की सबसे बड़ी खूबी यही है कि हम चाहे जैसी स्थिति में हों और चाहे जहाँ हों अपनी विद्यार्थी अवस्था बनाए रखें और उसका उत्तरोत्तर विकास चरते जायँ ।
खुला हुआ और निर्भय मन
ज्ञान अथवा विद्या केवल बहुत पढ़नेसे ही मिलती है, ऐसी बात नहीं । कम या अधिक पढ़ना यह रुचि, शक्ति और सुविधाका प्रश्न है । कमसे कम पढ़नेपर भी यदि अधिक सिद्धि और लाभ प्राप्त करना हो तो उसकी अनिवार्य शर्त यह है कि मनको खुला रखना और सत्य- जिज्ञासा रखकर जीवन में पूर्वग्रहों अथवा रूढ़ संस्कारोंको अवकाश न देना । मेरा अनुभव यह है कि इसके लिए सर्व प्रथम निर्भयताकी आवश्यकता है । धर्मका यदि कोई सच्चा और उपयोगी अर्थ है तो वह है निर्भयतापूर्वक सत्यकी खोज । तत्त्वज्ञान सत्य शोधनका एक मार्ग है । किसी भी विषयके अध्ययनमें धर्म और तत्त्वज्ञानका संबंध रहता ही है । ये दोनों वस्तुएँ किसी चौकेमें नहीं बाँधी जा सकतीं । यदि मनके सभी द्वार सत्यके लिए खुले हों और उसकी पृष्ठभूमि में निर्भयता हो, तो जो कुछ विचारा जाय अथवा किया जाय, सब तत्त्व-ज्ञान और धर्म में समाविष्ट हो जाता है ।
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जीवन-संस्कृति
जीवनमेंसे गंदगी और दुर्बलताको दूरकर उनके स्थानपर सर्वागीण स्वच्छता और सामञ्जस्यपूर्ण बलका निर्माण करना, यही जीवनकी सच्ची संस्कृति है । यही वस्तु प्राचीन कालसे प्रत्येक देश और जाति में धर्मके नामसे प्रसिद्ध है । हमारे देश में संस्कृतिकी साधना सहस्रों वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई और आज भी चलती है । इस साधना के लिए भारतका नाम सुविख्यात है । ऐसा होते हुए भी यहाँ धर्मका नाम ग्लानि उत्पन्न करनेवाला हो गया है और तत्त्वज्ञान निरर्थक कल्पनाओंमें गिना जाने लगा है । इसका क्या कारण है ? इसका उत्तर धर्मगुरुओं, धर्म- शिक्षा और धर्म-संस्था ओंकी जड़ता
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