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धर्म और समाज
और निष्क्रयतामें मिल जाता है । धर्म अथवा तत्त्वज्ञान अपने आपमें तो जीवनका सर्वव्यापी सौरभ है । परंतु इसमें जो दुर्गंध आने लगी है, वह दाम्भिक ठेकेदारोंके कारण । जिस प्रकार कच्चा अन्न अजीर्ण करता है, पर इससे कुछ भोजन मात्र ही त्याज्य नहीं हो जाता और जैसे ताजे और पोषक अन्न के बिना जीवन नहीं चल सकता, उसी प्रकार जड़ता पोषक धर्मका कलेवर त्याज्य होते हुए भी सच्ची संस्कृतिके बिना मानवता अथवा राष्ट्रीयता नहीं टिक सकती ।
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व्यक्तिकी सारी शक्तियाँ, सिद्धियाँ और प्रवृत्तियाँ जब एक मात्र सामाजिक कल्याणकी दिशा में लग जाती हैं, तभी धर्म या संस्कृति चरितार्थ होती है । धर्म, संस्कृति और तत्त्वज्ञानकी विकृत विचारधारा दूर करने और शताब्दियों पुराने भ्रमको मिटानेके लिए भी संस्कृतिका सच्चा और गहरा ज्ञान आव श्यक है ।
इससे गाँधीजी
हम लोगोंको मालूम है कि गाँधीजी एक महान् राजपुरुष हैं । उनकी राजकीय प्रवृत्ति और हलचलके मूल में सतत प्रवाहित होनेवाले अमृतके झरनेको उत्पन्न करनेवाला यदि कोई अटूट उद्गम स्थान है तो वह है उनका संस्कृतिविषयक सच्चा विवेक । उनकी निर्णायक शक्ति, सुनिर्णयपर जमे रहने की दृढ़ता और किसी भी प्रकारके भिन्न दृष्टिकोणको सहानुभूति से समझनेकी महानुभावता, ये सब उनके संस्कृति के सच्चे विवेकके आभारी हैं । इसके अतिरिक्त उनके पास अन्य कोई धर्म नहीं। ऐसा संस्कृतिप्रधान विद्याका वातावरण तैयार करना जिस प्रकार संस्थाके संचालकों और शिक्षकों पर निर्भर है उसी प्रकार विद्यार्थियोंपर भी उसका बहुत कुछ आधार है ।
व्यवसायियों और कुटुम्बियोंसे
हम मानते आये हैं कि जो कुछ सीखनेका है वह तो केवल विद्यार्थियोंके लिए है । हम व्यवसाय या गृहस्थी में फँसे हुए क्या सीखें ? और कैसे सीखें ? किन्तु यह मान्यता बिलकुल गलत है। मॉण्टेसरीकी शिक्षण-पद्धति में केवल शिशु और बालकके शिक्षणपर ही भार नहीं दिया जाता अपितु माता-पिताओंके सुसंस्कारोंकी ओर भी संकेत किया जाता है। ऐसा होने पर ही शिशु
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