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धर्मोका मिलन
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क्रमशः होनेवाला विकास ही मोक्ष है । ईश्वरकी कृपा और आत्माका पुरुषार्थ दोनों एक हो क्रियाके दो पहलू हैं। (पृ ११९) कर्म और पुनर्जन्मके विषयमें चर्चा करते हुए, पापीके पापको धोने के लिए दूसरेको दुःख भोगना पड़ता है, इस ईसाई धर्मके सिद्धान्तकी सूक्ष्म समीक्षा की गई है और पुष्ट प्रमाणोंसे सिद्ध किया गया है कि स्वकृत कर्म अन्यथा नहीं हो सकते और अगर होते भी हैं तो कर्ताके सत्पुरुषार्थसे ही। यह चर्चा पृ० १३३ से प्रारम्भ होती है।
भिन्न भिन्न संप्रदायोंमें परमात्मदर्शनके साधनोंके विषयमें कई विरोधी दृष्टिकोण दृष्टिगोचर होते हैं। एक परमात्म-दर्शनके लिए किसी मूर्तिका अवलंबन लेता है तो दूसरा उसे निरर्थक कहकर चिन्तन और जपको परमात्मदर्शनका साधन मानता है । इन दो मागों में स्थित गहरे विरोधने भाई-भाई
और संप्रदाय-संप्रदायमें संक्रामक विषका सिंचन किया है और अनेकोंके प्राण हरे हैं । इस विरोधका परिहार श्रीराधाकृष्णनने जिस मौलिक ढंगसे किया है उसे सुनकर मुझे अपने जीवनकी एक अद्भुत घटनाका स्मरण हो आया । मैं जन्मसे मूर्ति नहीं माननेवाला था। अनेक तीर्थों और मंदिरोंमें जानेपर भी उनमें पाषाणकी भावनाके अतिरिक्त दूसरी भावनाका मेरे मनमें उदय नहीं हुआ। एक बार प्रखर तार्किक यशोविजयजीका 'प्रतिमाशतक' पढ़ा गया। उसमें उन्होंने एक सरल दलील दी है कि परमात्माका स्मरण करना उपासकका ध्येय है। यह स्मरण यदि नामसे हो सकता है तो रूपसे भी हो सकता है। तब क्या यह उचित है कि एकको माने और दूसरेको त्याग दें? इस तर्कसे मेरे जन्मगत कुसंस्कारोंका लोप हो गया। श्रीराधाकृष्णनने भी मूर्तिविरोधियोंके सामने यही वस्तु बहुत विस्तार और सूक्ष्मरीतिसे उपस्थित की है । उनका कथन है कि परमात्म-तत्त्व तो वाणी और मनसे अगोचर है: लेकिन हमारे सदृश अपूर्ण व्यक्तियोंके लिए उस पथमें आगे बढ़नेके लिए और उसके स्मरणको पुष्ट करनेके लिए अनेक प्रतीक हैं। भले ही वे प्रतीक काष्ठ, पाषाण या धातुरूप हों या कल्पना, जपस्वरूप मानसिक या अमूर्त हो । वस्तुतः ये सब मूर्त-अमूर्त प्रतीक ही तो हैं। उन्होंने इस चर्चा में मानसशास्त्रके सिद्धान्त और ज्ञानका जो सुन्दर सम्मेलन किया है उसके ऊपर अगर कोई तटस्थतासे विचार करे, तो उसका पुराना विरोध खण्ड खण्ड हुए बिना नहीं रहेगा।
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