Book Title: Dharma aur Samaj
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
Publisher: Hemchandra Modi Pustakmala Mumbai

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Page 207
________________ १९० धर्म और समाज करनेके लिए भी नहीं कहते । स्वयं जड़ और निष्क्रिय होनेके कारण दूसरे क्रियाशीलके द्वारा ही प्रेरित होते हैं और क्रियाशील होते हैं प्रत्येक धर्मपंथके पंडित, और क्रियाकाण्डी । जब ये लोग स्वयं जानकर या अनजाने ही धर्मके भ्रममें पड़ जाते हैं और धर्म के मधुर तथा सरल आश्रयके नीचे विना परिश्रमके आराम-तलबी और बेजिम्मेदारीसे जीनेके लिए ललचाते हैं तबी धर्म-पंथका शरीर आत्माविहीन होकर सड़ने लगता है, गंधाने लगता है। यदि अनुयायीवर्ग भोला, अपढ़ या अविवेकी होता है, तो वह धर्मको पोषनेके भ्रममें उलटा धर्म-देहकी गंधका पोषण करता है और इसकी मुख्य जिम्मेदारी उस आरामतलब पंडित या पुरोहित वर्गकी होती है। प्रत्येक पंथका पंडित या पुरोहित-वर्ग अपना जीवन आरामसे बिताना चाहता है । वह ऐसी लालसाका सेवन करता रहता है कि अपना दोष दूसरोंकी नजरमें न आवे और अपने अनुयायीवर्गको नजरमें बड़ा दिखाई दे। इस निर्बलतासे वह अनेक प्रकारके आडम्बरोंका अपने बाड़ेमें पोषण करता जाता है और साथ ही भोला अनुयायी वर्ग कहीं दूसरी ओर न चला जाय, इस डरसे सदैव दूसरे धर्मपंथके देहकी त्रुटियाँ बताता रहता है। वह जब अपने तीर्थका महत्त्व गाता है तब उसे दूसरोंके तीर्थकी महिमाका ख्याल नहीं रहता, इतना ही नहीं वह दूसरे धर्मपंथोंका अपमान करनेसे भी बाज नहीं आता। जब सनातन धर्मका पंडा काशी या गयाके महत्त्वका वर्णन करता है तब उसीके पासके सारनाथ या राजगृहको भूल जाता है, बल्कि इन तीर्थोंको नास्तिक-धाम कहकर अपने अनुयायी वर्गको वहाँ जानेसे रोकता है। पालीताणा और सम्मेदशिखरके महत्त्वका वर्णन करने वाला जैन यति गंगा और हरिद्वारका महत्व शायद ही स्वीकार करेगा । कोई पादरी जेरुसलमकी तरह मक्का मदीनाको पवित्र नहीं मानेगा। इसी प्रकार एक पंथके पंडित दूसरे पंथके अति महत्वपूर्ण शास्त्रोंको भी अपने शास्त्रसे अधिक अधिक महत्त्व नहीं देंगे। इतना ही नहीं, वे अपने अनुयायीवर्गको दुसरे पंथके शास्त्रोंको छूने तकके लिए मना करेंगे । क्रियाकाण्डके विषयमें तो कहा ही क्या जाय ! एक पंथका पुरोहित अपने अनुयायीको दूसरे पंथमें प्रचलित तिलक तक नहीं लगाने देता! इन धर्मपंथोंके कलेवरोंकी पारस्परिक घृणा तथा झगड़ोंने हजारों वर्षोंसे ऐतिहासिक युद्धस्थल निर्माण किये हैं। इस प्रकार एक ही धर्मके आत्माके भिन्न भिन्न देहोंका जो युद्ध चलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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