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१२.८८
धर्म और समाज
भारत आक्रमण तो करता ही न था, इस लिए उसके धर्मोमें आक्रमण कार्यमें मदद कानेका दोष आया ही नहीं जैसा कि इस्लाम और ईसाई धर्ममें आ गया है। लेकिन इसमें आक्रमण सहनेका या अन्यायका विरोध न कानेका दोष आ गया है। उसीको दूर करने के लिए गाँधीजी प्रयत्न करते हैं । धर्मद्वारा राष्ट्रको पराधीनतासे मुक्त करनेका गाँधीजीका मार्ग अपूर्व है । श्रीराधाकृष्णन
और टैगोर आदि जिस समय धर्म और राष्ट्राभिमानका सम्मिश्रण नहीं करनेकी बात कहते हैं, उस समय उनके सामने सभी अधर्मगामी राष्ट्रोंका सजीव चित्र होता है।
इस ग्रंथका नामकरण भी उचित ही हुआ है। इसके सभी निबंध और प्रवचन मुख्यरूपसे धर्म-मिलनसे संबंध रखते हैं । धर्म-मिलनका साध्य क्या होना चाहिए, यह मुख्य प्रश्न है । इसका उत्तर श्रीराधाकृष्णनने स्वयं ही महासमन्वय की चर्चा करके दिया है। प्रत्येक धर्मके विचारक, अनुयायी और ज्ञाताओंका यह निश्चित मत है कि धर्मान्तर करनेकी प्रवृत्ति अनिष्ट है। साथ ही साथ किसी भी धर्मका उच्चतर अभ्यासी और विचारक ऐसा नहीं है 'जो अपने परंपरानुगत धर्मके स्वरूपसे संतुष्ट हो। प्रत्येक सुविचारक और उत्साही परंपरागत धर्मभूमिको वर्तमान स्थितिसे विशेष उन्नत और व्यापक बनानेकी इच्छा रखता है । एक तरफ पन्थान्तर या धर्मान्तरकी ओर बढ़ती हुई अरुचि और दूसरी ओर अपने अपने धर्मका विकास करनेकी, उसे विशेष व्यापक और शुद्ध करनेकी उत्कट अभिलाषा, इन दोनोंमें विरोध दृष्टिगोचर होता है। परन्तु यह विरोध ही 'महासमन्वय'की क्रिया कर रहा है। कोई धर्म सम्पूर्ण नहीं है, साथ ही यह भी नहीं है कि दूसरा पूर्णरूपसे पंगु है । जागरूक दृष्टि और विवेकशील उदारता हो तो कोई भी धर्म दूसरे धर्म से सुन्दर वस्तु ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार प्रत्येक धर्मका उच्चीकरण संभव है। यही धर्मजिज्ञासुओंकी भूख है । यह भूख श्रीराधाकृष्णनके सर्वधर्मविषयक उदार
और तटस्थ तुलनात्मक अध्ययनसे संतुष्ट होती है और वे ऐसे निरुपणद्वारा भिन्न भिन्न धर्मों के अनुयायियोंको अपने अपने धर्ममें स्थित रहकर उच्चत्तम स्थिति प्राप्त करनेका संकेत करते हैं ।
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