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धर्म और समाज
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धर्मस्रोत उसका मार्जन करता है। इस प्रकार मानव-जीवनकी भूमिकापर धर्मस्रोतके अनेक प्रवाह आते रहते हैं और उनसे वह भूमिका अधिकाधिक योग्य और उर्वर होती जाती है।
धर्मस्रोतोंका प्रकटीकरण किसी एक देश या जातिकी पैतृक संपत्ति नहीं है। वह तो मानवजातिरूप एक विशाल वृक्षकी भिन्न भिन्न शाखाओंमें प्रादुर्भूत होनेवाला सुफल है । यह सच है कि उसका प्रभाव विरल व्यक्तिमें ही होता किन्तु उसके द्वारा समुदायका भी अनेक अंशोंमें विकास होता है । इसी प्रकार धर्मकी आकर्षकता, प्रतिष्ठा, उसके नामसे सब कुछ अच्छा या बुरा करनेकी शक्यता, और बुरेको त्राण देनेकी उसकी शक्ति,-इन सब बलोंके कारण मानव-समुदायमें अज्ञान और वासनाजन्य अनेक भयस्थान भी खड़े हो जाते हैं । कोई भी धर्मपंथ इन भयस्थानोंसे सर्वथा मुक्त नहीं होता। इससे इहलोक
और परलोकके भेदको मिटानेकी, श्रेय और प्रेयके अभेदको सिद्ध करनेकी तथा आनेवाले सभी प्रकारके विक्षेपोंको लुप्त करके मानव जीवनमें सामंजस्य स्थापित करनेकी धर्मकी मौलिक शक्ति कुंठित हो जाती है। धर्मके उत्थान और पतनके इतिहासका यही हार्द है। . धर्म-नदीके किनारे अनेक तीर्थ खड़े होते हैं, अनेक पंथोंके घाट निर्माण होते हैं । इन घाटोंसे आजीविका करनेवाले पंडे या पुरोहित अपने अपने तीर्थों या घाटोंकी महत्ता या श्रेष्ठताका आलाप करके ही सन्तुष्ट नहीं होते, बल्कि अन्य तीर्थों या घाटोंकी न्यूनता दिखलानेमें भी अधिक रस लेने लगते हैं । धर्मकी प्रतिष्ठाके साथ वे कुछ दूसरे तत्त्वोंका भी मिश्रण कर देते हैं। वे कहते हैं हमारा धर्म मूलतः तो शुद्ध है, किन्तु उसमें जो कुछ अशुद्धियाँ आगई हैं वह परपंथोंका आगन्तुक असर है। इसी प्रकार यदि दूसरे धर्ममें कोई अच्छा तत्त्व दिखता है तो कहते हैं कि वह तो हमारे धर्मका असर है। साथ ही सनातनताके साथ ही शुद्धि और प्रतिष्ठाका गठबन्धन करते हैं । इन और ऐसे ही अन्य विकारी तत्त्वोंके कारण लोगोंका धार्मिक जीवन क्षुब्ध होता है । प्रत्येक पंथ अपनी सनातनता और शुद्धिकी स्थापनाके लिए तो तत्पर रहता है पर अन्य पन्थोंके उच्च तत्त्वोंकी उपेक्षा करता है।
धार्मिक जीवनकी इस बुराईको दूर करनेके अनेक मार्गोंमेंसे एक सुपरिणामदायी मार्ग यह है कि प्रत्येक धर्मजिज्ञासुको ऐतिहासिक और तुलनात्मक
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