Book Title: Dharma aur Samaj
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
Publisher: Hemchandra Modi Pustakmala Mumbai

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Page 198
________________ धर्मोका मिलन १८१ वस्तुतः अल्पभोग्य है । गाँधीजीके उद्गार और लेख गंभीर होते हुए भी संत-तपस्वीकी वाणीमें सर्वगम्य बन जाते हैं। इससे वे अधिकारीभेदसे बकरी और गाय के दूधकी तरह पुष्टिका कार्य करते हैं । डॉ० भगवानदासका धर्मचिन्तन और विचारलेखन अनेक उद्यानोंके अनेकविध पुष्पोंमेंसे झंगराजद्वारा किये गये मधु-संचय जैसा है। वह मधुर और पश्य है किन्तु दूधके समान सुपच नहीं । श्रीराधाकृष्णनके धर्मप्रवचन अनेक उद्यानोंके नाना लता-बृक्षोंसे चुने हुए अनेक रंगी और विविध जातिके कुसुमोंकी अत्यन्त कुशल मालाकारके द्वारा गूंथी मनोरम पुष्पमाला है, जो किसी भी प्रेक्षक अधिकारीकी दृष्टिको लुब्ध करती है और अपनी सुगंध और सुन्दरतासे वाचक और श्रोताको विषयमें लीन करके रसास्वादी बना देती है। धर्म कहते हैं सत्यकी जिज्ञासा, विवेकपूर्ण समभाव और इन दो तत्त्वोंके आधारसे घटित जीवन-व्यवहारको । यही धर्म परिमार्थिक है। अन्य विधि-निषेध क्रियाकाण्ड, उपासना भेद, आदि तब तक ही और उतने ही अंशोंमें यथार्थ धर्मके नामके योग्य हैं, जब तक और जितने अंशोंतक उक्त पारमार्थिक धर्मके साथ उनका अभेद्य सम्बन्ध बना है । पारमार्थिक धर्म जीवनकी मूलगत और अदृश्य वस्तु है। उसका अनुभव या साक्षात्कार, धार्मिक व्यक्तिको ही होता है, जब कि व्यावहारिक धर्म दृश्य होनेसे पर-प्रत्येय है। यदि पारमार्थिक धर्मका सम्बन्ध न हो, तो अति प्राचीन और बहुसम्मत धर्मोको भी वस्तुतः धमोभास कहना होगा। आध्यात्मिक धर्म किसी एक व्यक्तिके जीवन मेंसे छोटे-बड़े स्रोतरूपसे प्रकट होता है और आसपासके मानव-समाजकी भूमिकाको प्लावित कर देता है। उस स्रोतका बल कितना ही क्यों न हो किन्तु वह सामाजिक जीवनकी भूमिकाको कुछ अंशोंतक ही आर्द्र करता है। भूमिकाकी अधूरी आर्द्रतामेंसे अनेक कीटाणुओंका जन्म होता है और वे अपनी आधारभूत भूमिकाका ही भक्षण करने लगते हैं। इतने में फिर किसी दूसरे व्यक्तिमेंसे धर्मस्रोत प्रकट होता है और तब वह प्राथमिक कीटाणुजन्य गन्दगीको साफ करनेके लिए तत्पर होता है । यह दूसरा स्रोत पहले स्रोतके ऊपर जमी हुई काईको हटाकर जीवनकी भूमिकामें अधिक फलदायी रसतत्त्वका सिंचन करता है। आगे चलकर उसके ऊपर भी काई जम जाती है और तब काल-क्रमसे तीसरे व्यक्तिमें प्रादुर्भूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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