Book Title: Dharma aur Samaj
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
Publisher: Hemchandra Modi Pustakmala Mumbai

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Page 196
________________ समाजको बदलो १७९ हो भी जायेंगे तो भी सबल समाजकी रचना नहीं हो सकेगी। ऐसी कई महत्त्वकी बातें ये हैं : (१) हिन्दू धर्मकी पर्याय समझी जानेवाली ऊँच-नीचके भेदकी भावना, जिसके कारण उच्च कहानेवाले सवर्ण स्वयं भी गिरे हैं और दलित अधिक दलित बने हैं । इसीके कारण सारा हिन्दू-मानस मानवता-शून्य बन गया है । (२) पूँजीवाद या सत्तावादको ईश्वरीय अनुग्रह या पूर्वोपार्जित पुण्यका फल मान कर उसे महत्त्व देनेकी भ्रान्ति, जिसके कारण मनुष्य उचित रूपमें और निश्चिन्ततासे पुरुषार्थ नहीं कर सकता। (३) लक्ष्मीको सर्वस्व मान लेनेकी दृष्टि, जिसके कारण मनुष्य अपने बुद्धि-बल या तेजकी बजाय खुशामद या गुलामीकी ओर अधिक झुकता है । (४) स्त्री-जीवनके योग्य मूल्यांकनमें भ्रांति जिसके कारण पुरुष और स्त्रियाँ स्वयं भी स्त्री-जीवनके पूर्ण विकासमें बाधा डालती हैं । (५) क्रियाकांड और स्थूल प्रथाओंमें धर्म मान बैठनेकी मूढता, जिसके कारण समाज संस्कारी और बलवान बननेके बदले उल्टा अधिक असंस्कारी और सच्चे धर्मसे दूर होता जाता है।। ___ समाजको बदलनेकी इच्छा रखनेवालेको सुधारके विषयोंका तारतम्य समझकर जिस बारेमें सबसे अधिक जरूरत हो और जो सुधार मौलिक परिवर्तन ला सकें उन्हें जैसे भी बने सर्व प्रथम हाथमें लेना चाहिए और वह भी अपनी शक्तिके अनुसार । शक्तिसे परेकी चीजें एक साथ हाथमें लेनेसे संभव सुधार भी रुके रह जाते हैं। समाजको यदि बदलना हो तो उस विषयका सारा नक्शा अपनी दृष्टिके . सामने रखकर उसके पीछे ही लगे रहनेकी वृत्तिवाले उत्साही तरुण या तरुणियोंके लिए यह आवश्यक है कि वे प्रथम उस क्षेत्रमें ठोस काम करनेवाले अनुभवियोंके पास रहकर कुछ समय तक तालीम लें और अपनी दृष्टि स्पष्ट और स्थिर बनावें। इसके बिना प्रारंभमें प्रकट हुआ उत्साह बीचमें ही मर जाता है या कम हो जाता है और रूढिगामी लोगोंको उपहास करनेका मौका मिलता है। [तरुण, फरवरी १९५१] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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