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धर्म और समाज
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है । सुईका निकालना तो ठीक है क्योंकि वह अस्थान में थी । किन्तु यदि उसकी भी जीवन में आवश्यकता है, तो उसे फैंक देना अवश्य भूल है । यथावत् उपयोग करनेके लिए योग्यरूपसे उसका संग्रह कर रखना ही पाँवमेंसे सुई निकालनेका ठीक प्रयोजन है । जो न्याय सुईके लिए है, वही न्याय सामूहिक कर्मके लिए है । सिर्फ वैयक्तिक दृष्टिसे जीना सामूहिक जीवनकी दृष्टि में सुई भोंकने जैसा है । उस सुईको निकाल कर उसका यथावत् उपयोग करनेका मतलब है सामूहिक जीवनकी जवाबदेही समझपूर्वक स्वीकार करके जीना । ऐसा जीवन व्यक्तिके लिए जीवन- मुक्ति है । जैसे जैसे प्रत्येक व्यक्ति. अपनी वासनाशुद्धिके द्वारा सामूहिक जीवनके मैलको कम करता रहेगा, वैसे वैसे सामूहिक जीवन विशेष रूपसे दुःखमुक्त होता जायगा । इस प्रकार विचार करनेसे कर्म ही धर्म प्रतीत होगा । अमुक फल अर्थात् रसके अलावा छाल भी । यदि छाल न हो, तो रस टिक नहीं सकता और बिना रसकी छाल भी फल नहीं । इसी प्रकार धर्म तो कर्मका रस है और कर्म केवल धर्मकी छाल है। दोनों जब यथावत् संमिश्रित हों, तभी जीवन फल प्रकट हो सकता है । कर्मरूप आलम्बनके बिना वैयक्तिक और सामूहिक जीवनकी शुद्धिरूप धर्म रहेगा कहाँ ? और यदि ऐसी शुद्धि न हो तो उस कर्मका छालसे अधिक मूल्य भी क्या होगा ? इस प्रकारका धर्म-कर्म-विचार इन लेखों में ओतप्रोत है । विशेषता यह है कि लेखकोंने मुक्तिकी भावनाका भी विचार सामुदायिक जीवनकी दृष्टिसे किया है और संगति बैठाई है ।
कर्म प्रवृत्तियाँ नाना प्रकारकी हैं । किन्तु उन सबका मूल चित्त में है । कभी योगियोंने निर्णय किया कि जब तक चित्त है तब तक विकल्प उद्भूत होते रहेंगे और विकल्पोंके होनेसे शांतिका अनुभव नहीं होगा । अतएव 'मूले कुठारः ' के न्यायसे वे चित्तके विलय करनेको हो प्रवृत्त हो गये और कई लोगोंने मान लिया कि चित्त-विलय ही मुक्ति है और वही परम साध्य है । मानवताके विकासका विचार तो इसमें उपेक्षित-सा ही रह गया । यह भी कर्मको बन्धन मानकर उसके त्यागके जैसी ही भूल थी । उक्त विचारमें अन्य विचारकोंने संशोधन किया कि चित्तविलय मुक्ति नहीं है किन्तु चित्तशुद्धि ही शक्तिका मार्ग होनेसे मुक्ति है । किन्तु सिर्फ वैयक्तिक चित्तकी शुद्धिको पूर्ण मुक्ति 1 मान लेना अधूरा विचार है । सामूहिक चित्तकी शुद्धि बढ़ाते जाना ही
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