Book Title: Dharma aur Samaj
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
Publisher: Hemchandra Modi Pustakmala Mumbai

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Page 178
________________ हरिजन और जैन १६१ उच्चारण शुरू कर दिया था ? यह सब कुछ नहीं था । यह सब होते हुए भी जैनी पहलेसे आज तक सत्ताधारी प्रभावशाली और सम्पत्तिशाली प्रत्येक जाति या वर्गके मनुष्यको अपने धर्म-स्थानोंके द्वार खुले रखते थे । तब प्रश्न होता है कि ये लोग फिर आज हरिजन-मन्दिर-प्रवेश बिलका इतना उग्र विरोध क्यों कर रहे हैं ? जो वस्तु इस परम्पराके प्राणोंमें नहीं थी वह हाड़ोंमें कहाँसे आ गई ? इसका उत्तर जैन-परम्पराकी निर्बलतामें है । गुरु-संस्थामें व्याप्त जातिसमानताका सिद्धान्त जैनोंने मर्यादित अर्थमें लागू किया है, क्योंकि आज भी जैन-गुरुसंस्थामें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, अंग्रेज, पारसी आदि कोई भी समान सम्मान्य स्थान पा सकता है। यहाँ मैं 'मर्यादित अर्थमें' इसलिए कह रहा हूँ कि जिस गुरुसंस्थामें किसी समय हरिकेशी और मेतार्य जैसे अस्पृश्योंको पूज्य पद प्राप्त हुआ था उसमें उसके बाद अस्पृश्योंको स्थान मिला हो, ऐसा इतिहास नहीं है। इतना ही नहीं, अस्पृश्योंका उद्धारकर उन्हें स्पृश्य बनाने तथा मनुष्यकी सामान्य भूमिकापर लानेके मूल जैन सिद्धान्तको भी जैन लोग बिलकुल भूल गये है। जैनोंके यहाँ हरिजनोंका अनिवार्य प्रवेश है। केवल गृहस्थोंके. घरोंमें ही नहीं, धर्मस्थानोंमें भी, इच्छा या अनिच्छासे, हरिजनोंका प्रवेश अनिवार्य हैं। पर यह प्रवेश स्वार्थप्रेरित है । अपने जीवनको कायम रखने और स्वच्छता तथा आरोग्यके लिए न चाहते हुए भी वे हरिजनोंको अपने घरों तथा धर्मस्थानोंमें बुलाते हैं। जब धर्मस्थानोंकी स्वच्छताके लिए हरिजन आते हैं, तब क्या वे उन देवोंका नाम लेते हैं ? और क्या जैनोंको उस समय इस बातकी परवाह होती है कि वे जिनदेवका नाम ले रहे हैं या नहीं ? उस समय उनकी गरज है, अतः वे कोई दूसरा विचार नहीं करते । पर जब वे ही हरिजन स्वच्छ होकर जैनधर्मस्थानोंमें आना चाहते हैं अथवा उनके मन्दिर-प्रवेशमें बाधक रूढ़ियोंको तोड़नेके लिए कोई कानून बनाया जाता है, तब जैनोंको याद आ जाती है कि यह अरंहंतका अनुयायी नहीं है, यह अरहंतका नाम नहीं लेता, यह तो महादेव या मुहम्मदका माननेवाला है। यह है जैनोंकी आजकी धर्मनिष्ठा ! इस प्रश्नको एक दूसरे प्रकारसे सोचिए । कल्पना कीजिए कि अस्पृश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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