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धर्म और समाज
वर्ग क्रमशः ऊँचे ऊँचे शासकपदोंपर पहुँच जाय, जैसे कि क्रिश्चियन हो जानेके बाद वह ऊँचे पदोंपर पहुँचता है, और उसका पहुँचना निश्चित है । इसी तरह शिक्षा या व्यागारद्वारा वह समृद्धिशाली हो उच्चाधिकारी बन जाय जैसे कि आज डॉ० अम्बेडकर आदि हैं, उस समय क्या जैन लोग उनके लिए अपने धर्मस्थानों में दूसरे लोगोंकी तरह प्रतिबन्ध लगायेंगे ? और क्या उस समय भी बिलके विरोधकी तरह उनका सीधा विरोध करेंगे ? जो लोग जैन-परम्पराकी वैश्य प्रकृतिको जानते हैं वे निःशंक कह सकते हैं कि जैन उस समय अस्पृश्य वर्गका उतना ही आदर करेंगे जितना कि अतीतकालमें क्रिश्चियन मुसलमान पारसी तथा अन्य विधर्मी उच्च शासकोंका करते आये हैं और अब करते हैं। इस चर्चाका निष्कर्ष यही है कि जैन लोग 'अपना धर्मसिद्धान्त भूल गये हैं और केवल सत्ता और धनकी प्रतिष्ठामें ही 'धर्मकी प्रतिष्ठा मानते हैं। अन्यथा यह कहनेका क्या अर्थ है कि 'हरिजन' हिन्दू होकर भी जैन नहीं हैं, अतः हम लोग जैन मन्दिरमें प्रवेश देनेवाले कानूनको नहीं मानना चाहते १ हरिजनोंके सिवाय अन्य सभी अजैन हिन्दुओंको जैन 'धर्मसंध और धर्मस्थानोंमें आनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है, उलटे उन्हें अपने 'धर्मस्थानोंमें लानेके लिए विविध प्रयत्न किये जाते हैं। तो फिर हिन्दु समाजके ही एक दूसरे अंगरूप हरिजनोंको अपने धर्मस्थानों तथा अपनी शिक्षणसंस्थाओं में स्वयं क्यों न बुलाया जाय ? धार्मिक सिद्धान्तकी रक्षा और गौरव इसीमें है । जैनोंको तो कहना चाहिए कि हमें बिल-फिल या धारावाराकी कोई आवश्यकता नहीं है, हम तो अपने धर्मसिद्धान्तके बलसे ही हरिजन या हर किसी मनुष्यके लिए अपना धर्मस्थान खुला रखते हैं और सदा ही वह सबके लिए उन्मुक्त-द्वार रहेगा। ऐसी खुली घोषणा करनेके बदले विरोध करना और उलटी सुलटी दलीलोंका वितण्डा खड़ा करना, इससे बढ़कर जैन धर्मकी नामोशी क्या हो सकती है ?
पर इस नामोशीकी परवाह न करनेवाला जो जैन मानस बन गया है उसके पीछे एक इतिहास है । जैन लोग व्यवहार-क्षेत्रमें ब्राह्मण-वर्गके जाति-भेदके सिद्धान्तके सामने सर्वदा झुकते आये हैं । भगवान् महावीरसे ही नहीं, उनसे भी पहलेसे प्रारम्भ हुआ 'जाति-समानता' का सिद्धान्त आज तकके जैन अन्थोंमें एक सरीखा समर्थित हुआ है और शास्त्रोंमें इस सिद्धान्तके समर्थन
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