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धर्म और समाज
नहीं भूल जाना चाहिए। बहुत बार क्षुल्लक विचारक और भीरु स्वार्थी सुधारक अपनेको नास्तिक कहलाने के लिए सामनेवाले पक्षके प्रति अन्याय करने तक तैयार हो जाते हैं । उन्हें भी सावधान होनेकी आवश्यकता है । स्पष्टतः यदि कोई एक पक्षवाला आवेश या जनूनमें आकर दूसरे पक्षको सिर्फ नीचा दिखानेके लिए किसी भी तरहके शब्दका प्रयोग करता है, तो यह तात्त्विक रीतिसे 'हिंसा ही समझी जायगी। अपनेसे भिन्न विचारवाले व्यक्तिके लिए समभाव
और प्रेमसे योग्य शब्दोंका व्यवहार करना एक बात है और रोषमें आकर दूसरेको तुच्छ बनानेके खातिर मर्यादा छोड़कर अमुक शब्दोंका व्यवहार करना दूसरी बात है। फिर भी किसी बोलनेवालेके मुँहपर ताला नहीं लगाया जाता या लिखनेवालेके हाथ बांधे नहीं जाते। इसीसे जब कोई आवेगमें आकर भिन्न मतवाले के लिए अमुक शब्दका व्यवहार करता है तब भिन्न मतवालेका अहिंसक कर्तव्य क्या है, इसका भी हमको विचार कर लेना चाहिए ।
पहला तो यह कि हमारे लिए जब कोई नास्तिक या ऐसा ही कोई दूसरा शब्द व्यवहार करे, तो इतना ही समझना चाहिए कि उस भाईने हमें केवल भिन्न-मतवाला अथवा वैसा न माननेवाला समझकर उसी अर्थमें समभाव और वस्तु-स्थितिसूचक शब्दका प्रयोग किया है । उस भाईकी उस शब्दके व्यवहार करनेमें कोई दुर्वृत्ति नहीं है, ऐसा विचार करके उसके प्रति प्रेमवृत्ति और उदारता रखनी चाहिए।
दूसरा यह कि अगर यही मालूम हो कि अमुक पक्षवालेने हमारे लिए आवेशमें आकर निन्दाकी दृष्टिसे ही अमुक शब्दका ब्यवहार किया है तो यह विचार करना चाहिए कि उस भाईकी मानसिक भूमिकामें आवेश और संकुचितताके तत्व हैं । उन तत्त्वोंका वह मालिक है और जो जिस वस्तुका मालिक होता है वह उसका इच्छानुसार उपयोग करता ही है । उसमें अगर आवेशका तत्त्व है, तो धीरज कहाँसे आवेगा और अगर संकुचितता है तो उदारता कहाँसे 'प्रकट होगी ? और अगर आवेश और संकुचितताके स्थानमें धैर्य और उदारता उसमें लानी है तो वह इसी तरीकेसे आ सकती है कि चाहे जितने कडुए शब्दोंके बदले भी अपने मनमें धीरता और उदारताको बनाये रखना । क्यों
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