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धर्म और समाज
हो, या परापूर्वसे चला आनेवाला कथानक हो, उनके लिए इतिहास
और सच्चा इतिहास हैं। उनको पढ़ाया जानेवाला भूगोल विश्क्के उस पारसे शुरू होता है जिसमें प्रत्यक्ष देखे जा सके, और जहाँ स्वयं जाया जा सके, ऐसे स्थानोंकी अपेक्षा ज्यादातर ऐसे ही स्थानोंका बड़ा भाग होता है जहाँ कभी पहुँचा न जा सके और जिसे देखा न जा सके । उनके भूगोलमें देवाङ्गनाए हैं, इन्द्राणियों है और परम धार्मिक नरकपाल भी। जिन नदियों, समुद्रों और पर्वतोंके नाम उनको सीखने होते हैं उनके विषयमें उनका पक्का विश्वास रहता है कि यद्यपि वे वर्तमानमें अगम्य हैं फिर भी हैं वर्णनके अनुसार ही। तत्त्वज्ञान, ऐसे विश्वासके साथ सिखाया जाता है कि जो दोहजार वर्ष पहले संग्रह हुआ था वही अविच्छिन्न स्वरूपमें बिना परिवर्तनके चला आता है। इस लम्बे समय आसपासके बलोंने जैन-तत्त्वज्ञानके पोषणके लिए जो दलीलें, जो शास्त्रार्थ जैन साहित्यमें दाखिल किये हैं उनका ऋण स्वीकारना तो दूर रहा, उलटे ऐसे संस्कार भर दिये जाते हैं कि अन्यत्र जो कुछ भी कहा गया है वह सब जैन-साहित्य-समुद्रका बिन्दु मात्र है। नवीं और दसवीं सदी तक बौद्ध विद्वानोंने और करीब करीब उसी सदी तक ब्राह्मण विद्वानोंने जो तात्त्विक चर्चाएँ की हैं वही श्वेताम्बरों या दिगम्बरोंके तत्व-साहित्यमें अक्षरशः मौजूद हैं। किन्तु उसके बादकी सदियोंमें ब्राह्मण विद्वानोंने जो तत्त्वज्ञान पैदा किया है
और जिसका अभ्यास सनातनी पंडित अब तक करते आये हैं और जैन साधुओंको भी पढ़ाते आये हैं, उस तत्वज्ञानके विकाससे-यशोविजयजीके अपवादको छोड़कर-सबके सब जैन आचार्योका साहित्य वंचित है। फिर भी जैनतत्त्वज्ञानका अभ्यास करनेवाले साधु मानते हैं कि वे जो कुछ सीखते हैं उसमें भारतीय विकसित तत्वज्ञानका कोई भी अंश बाकी नहीं रह जाता। भारतीय दार्शनिक संस्कृतिके प्राणभूत पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा दर्शनोंके तनिक भी प्रामाणिक अभ्यासके बिना जैन साधु अपने तत्त्वज्ञानको संपूर्ण मानते हैं। भाषा, व्याकरण, काव्य, कोष-ये सब भी उनकी शिक्षाके विषय है, लेकिन उनमें नवयुगका कोई भी तत्व दाखिल नहीं हुआ। संक्षेपमें अनेकान्तवादका विषयके नाते तो स्थान होता है परन्तु अनेकान्तकी दृष्टि जीवित नहीं होती। इसी कारण वे विज्ञानका आश्रय तभी लेते हैं जब उन्हें अपने मत-समर्थनके अनुकूल उसमेंसे कुछ मिल जाय ।
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