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धर्म और समाज
पूर्वक कुछ नीचे उतर आवें तो उन्हें सत्य समझमें आ सकता है और व्यर्थमें बर्बाद की जानेवाली शक्ति उपयोगी कार्योंमें लग सकती है। इसलिए मैं यहाँपर जैन युवकका अर्थ क्रियाशील करके उसके अनिवार्य लक्षणके रूपमें विवेकी क्रिया-शीलताका समावेश करता हूँ।
साधु-संस्थाको अनुपयोगी या अजागलस्तनवत् माननेवालोंसे मैं कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ। भूतकालीन साधु संस्थाके ऐतिहासिक कार्योंको अलग रखकर अगर हम पिछली कुछ शताब्दियोंके कार्योंपर ही विचार करें, तो इस संस्थाके प्रति आदरभाव प्रकट किये बिना नहीं रहा जा सकता। दिगम्बर-परंपराने अन्तिम शताब्दियोंमें अपनी इस संस्थाको क्षीण बनाया, तो क्या इस परम्पराने श्वेताम्बर परम्पराकी अपेक्षा विद्या, साहित्य, कला या नीति-प्रचार में ज्यादा देन दी है ? इस समय दिगम्बर-परम्परा मुनि-संस्थाके लिए जो प्रयत्न कर रही है, उसका क्या कारण है ? जिह्वा और लेखनीमें असंयम रखनेवाले अपने तरुण बंधुओंसे मैं पूछता हूँ कि आप विद्या-प्रचार तो चाहते हैं न ? अगर हा, तो इस प्रचारमें सबसे पहले और ज्यादा सहयोग देनेवाले साधु नहीं तो और कौन हैं ? एक उत्साही श्वेताम्बर साधुको काशी जैसे दूर और बहुत कालसे त्यक्त स्थानमें गृहस्थ कुमारोंको शिक्षा देनेकी महत्त्वपूर्ण अंतःस्फुरणा अगर न हुई होती, तो क्या आज जैन समाजमें ऐसी विद्योपासना शुरू हो सकती थी ? एक सतत कर्मशील जैन मुनिने आगम और आगमेतर साहित्यको विपुल परिमाणमें प्रकट कर देश और विदेशमें सुलभ कर दिया है जिससे जैन और जैनेतर विद्वानोंका ध्यान जैन साहित्यकी ओर आकर्षित हुआ है। क्या इतना बड़ा और महत्त्वपूर्ण कार्य कोई जैन गृहस्थ इतने अल्प समयमें कर सकता था ? एक वृद्ध मुनि और उसका शिष्यवर्ग जैन समाजके विभूतिरूप शास्त्र-भण्डारोंको व्यवस्थित करने और उसे नष्ट होनेसे बचानेका प्रयत्न कर रहा है और साथ ही साथ उनमेंकी सैकड़ों पुस्तकोंका श्रमपूर्वक प्रकाशनकार्य भी वर्षोंसे कर रहा है जो स्वदेश विदेशके विद्वानोंका ध्यान आकर्षित करता है । ऐसा कार्य आप और मेरे जैसा कोई गृहस्थ नहीं कर सकता ।
शास्त्रों और आगमोंको निकम्मा समझनेवाले भाइयोंसे मैं पूछता हूँ कि क्या आपने कभी उन शास्त्रोंका अध्ययन भी किया है ? आप उनकी कदर नहीं
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