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धर्म और समाज
और विद्वत्तावाले शंकराचार्य और दूसरे संन्यासियोंके समयमें उनके ही समक्ष उनसे भी बड़े बड़े गृहस्थ पंडितोंका इतिहास वैदिक समाजमें प्रसिद्ध है । परन्तु प्रसिद्ध साधुओं या आचार्योंकी जोड़का एक भी गृहस्थ श्रावक जैन इतिहासने उत्पन्न नहीं किया । क्या गृहस्थ ब्राह्मण में जितनी बुद्धि होती है उतनी श्रावकमें नहीं हो सकती ? या जब तक श्रावक गृहस्थ है तब तक उसमें इस प्रकारकी बुद्धिकी संभावना ही नहीं और जब वह साधुवेश धारण करता है तभी उसमें एकाएक ऐसी बुद्धि उबल आती है ? नहीं, कारण यह है कि गृहस्थ श्रावक शिक्षा और संस्कारके क्षेत्रमें साधुओंके समान दर्जे में दाखिल ही नहीं हुए । उन्होंने अपना सारा ही समय पातिव्रत्य धर्मका पालन करके भक्तिकी लाज रखने में लगाया है और साधुओंकी प्रतिष्ठाका सतत समर्थन किया है । इसीलिए एक ही सामान्य दर्जे में शिक्षा पानेवाले साधु गच्छ भेद, क्रियाकाण्ड-भेद या पदवी-मोहके कारण जब आपस में लड़ते थे तब गृहस्थ श्रावक एक या दूसरे पक्षका वफादारीसे समर्थन करते थे । लेकिन प्रत्यक्ष रीतिसे किसी भी गृहस्थका किसी साधुके सामने लड़ना, मतभेद रखना या विरोध करना होता ही नहीं था । इसी कारण हमारा पुराना इतिहास गृहस्थों और त्यागियोंके शिक्षासंस्कार विषयक आन्तर - विग्रहसे नहीं रंगा गया । वह कोरा पृष्ठ तो अब यूरोपकी शिक्षासे चित्रित होना शुरू हुआ है ।
आन्तरविग्रह
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साधुओं और नवीन शिक्षाप्राप्त गृहस्थोंके मानसके बीच इतना बड़ा विग्रहकारी भेद क्यों है ? इस अन्तर्विग्रहका मूल कारण क्या है ? मानस शिक्षासे और शिक्षा के अनुसार ही बनता है । 'जैसा अन्न तैसा मन ' इस कहावत से ज्यादा व्यापक और सूक्ष्म सिद्धान्त यह है कि 'जैसी शिक्षा वैसा मन । बीसवीं शताब्दी में भी शिक्षणसे - केवल पर्याप्त शिक्षणसे ही हजारों वर्ष पहले के मानसका पुनर्गठन हो सकता है । उस पुराने जंगली मानसको केवल शिक्षणकी सहायता से थोड़े ही समय में आधुनिक बनाया जा सकता है । साधु जिस शिक्षणको पाते हैं वह एक प्रकारका है और उनके भक्त श्रावकोंकी सन्तति जिस शिक्षाको पाती है वह बिल्कुल निराले ढँगकी । एक दूसरेके बिल्कुल विपरीत बहनेवाले शिक्षणके इन दो प्रवाहोंने जैन समाजमें, दो प्रकार के.
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