Book Title: Dharma aur Samaj
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
Publisher: Hemchandra Modi Pustakmala Mumbai

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Page 158
________________ त्यागी संस्था १४१ यदि आप इसे त्यागी कहना चाहें भोगी नहीं, तो इसमें मेरा विरोध नहीं है परन्तु जो स्वश्रमका त्याग करता है और दूसरेके श्रमका फल अंगीकार किये बिना क्षण मात्र भी जीवित नहीं रह सकता अथवा जिस एकके जीवन के लिए. दूसरे अनेकोंको अनिवार्य रूपसे परिश्रम करना पड़ता है, उसे त्यागी कहना चाहिए या सबसे अधिक भोगी ? भगवानका त्याग कर्म मात्रका त्याग था । साथ ही साथ उसमें फलका और दूसरोंकी सेवाका भी त्याग था । भगवानका वह त्याग आज यदि संभव नहीं है, तो उसे अनुसरण करनेका मार्ग भी अब भिन्न बनाये विना काम नहीं चल सकता । आजकलका दिगम्बरत्व प्रासादों और भवनोंमें प्रतिष्ठा पा रहा है । परन्तु भगवानकी नग्नत्व जंगलमें पैदा हुआ और वहाँ ही शोभित हुआ । उन्हें आजकलके साधुओंकी तरह दिनमें तीन बार खानेकी और तैल मर्दन करानेकी आवश्यकता नहीं पड़ती थी । पर आजकल स्थिति इतनी अधिक बदल गई है कि जैन साधु-संस्था आध्यात्मिक क्षेत्र से बिलकुल ही अलग हो गई है, यहाँ तक कि व्यवहार कुशलताकी भूमिकापर भी स्थित नहीं है; वह तो केवल आर्थिक स्पर्धाके क्षेत्रमें स्थित है । भगवानका सिद्धान्त है कि हम जैसे अन्तरमें हों वैसे ही बाहर से दिखाई दें। यदि जीवनमें त्याग हो, तो त्यागी कहलाना और भोगवृत्ति हो तो भोगी रूपसे रहना ।आजकलका साधु - समाज न तो भोगी है, क्योंकि वह स्वतंत्रताके साथ गृहस्थोंकी तरह अपने परिश्रम के ऊपर भोग-जीवन नहीं व्यतीत करता और न त्यागी है; क्योंकि उसके आंतरिक लक्षण त्यागसे बिलकुल विरुद्ध हैं । ऐसी स्थिति होनेपर भी वह भोगीकी तरह मुख्य मुख्य सुविधाओंको छोड़े विना ही अपनी त्यागी के रूपसे पहचान कराता है । इसलिए भगवान के सिद्धान्तका अनुसरण करनेके लिए यदि उसे त्यागी ही रहना है, तो जंगलमें जाना चाहिए | अथवा बसतीके निकट रहना हो तो दूसरोंके श्रमका उपभोग नहीं करना चाहिए और यदि उसे भोगी ही होना है, तो दूसरोंके नहीं अपने ही श्रमके ऊपर होना चाहिए । ऐसा होनेपर ही सच्चे त्यागकी संभावना है । स्वश्रमसे उत्पन्न की हुई वस्तुका उपभोग करनेसे अनेक बार अधिक से अधिक. त्याग होता है । जीवनमें वैसा त्याग अनिवार्य है । स्वश्रम से तैयार किये हुए. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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