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युवकोंसे
क्रान्ति वस्तु मात्रका अनिवार्य स्वभाव है । प्रकृति स्वयं ही निश्चित समय' पर क्रान्तिको जन्म देती है । मनुष्य बुद्धिपूर्वक क्रान्ति करके ही जीवनको बनाये रखता और बढ़ाता है। बिजली अचानक गिरती है और वृक्षोंको क्षणमात्रमें 'निर्जीव करके किसी दूसरे कामके लायक बना देती है । परन्तु वसन्त ऋतुका कार्य इससे विपरीत है । वह एक तरफ जीर्ण शीर्ण पत्रोंको झड़ा देती है और दूसरी -तरफ नये, कोमल और हरे पर्णोंको जन्म देती है । किसान सारे झाड़-झंखाड़ निकालकर जमीनको खेतीके लिए तैयार करता है, जिससे दूसरी बार उसे निंदाई में समय नष्ट न करना पड़े। उतने समयमें वह पौधोंको अच्छी तरह उगाने का प्रयत्न करता है । ये सब फेरफार अपने अपने स्थान में जितने योग्य हैं, दूसरी जगह उतने ही अयोग्य । इस वस्तुस्थितिको ध्यान में रखते हुए अगर हम चलें तो क्रान्तिसे भय रखनेकी आवश्यकता नहीं, साथ ही अविचारी क्रांतिके कष्टसे भी बच सकते हैं । हमें भूतकालके अनुभव और वर्तमानके अवलोकनसे सुन्दर भविष्यका विचार शांतचित्त से करना चाहिए । आवेश में बह जाना या जड़तामें फँस जाना, दोनों ही हानिकारक हैं ।
जैन- परम्परा के कुल में जन्मा हुआ जैन हैं, यह सामान्य अर्थ है । साधारणतः अठारहसे चालीस वर्षतककी उम्रका पुरुष युवक कहा जाता है । पर हमें इस परिमित क्षेत्र में ही 'जैन युवक' शब्दको नहीं रखना चाहिए। हमारा इतिहास और वर्तमान परिस्थिति इसमें नये जीवनभूत तत्त्वोंको समावेश करनेकी आवश्यकता प्रकट करती है । जिनके अभाव में जैन युवक केवल नामका युवक रहता है और जिनके होनेपर वह एक यथार्थ युवक बनता है, वे तीन, तव ये हैं:
१ निवृत्तिलक्षी प्रवृत्ति, २ निर्मोह कर्मयोग, ३ विवेकपूर्ण क्रियाशीलता ।
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