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धर्म और समाज
भार दूसरोंपर नहीं लादना, यह कुछ कम सेवा नहीं है। सेवककी आवश्यकता दूसरोंकी अपेक्षा कम होती है, उसे निर्वाहयोग्य अर्जन करनेमें अपना सारा समय नहीं लगाना पड़ता, इसलिए उसके लिए बचा हुआ थोड़ा-सा समय भी अधिक कीमती होता है. और इसे कोई बिलकुल छोटी सेवा नहीं कह सकता कि उनके द्वारा लोगोंको जातमेहनत ( स्वावलम्बन) और सादगीका पदार्थ'पाठ मिलता है। इसलिए त्यागी-संस्थाका सारा परिवर्तन स्वश्रमसे निर्वाह करनेकी नींवपर होना चाहिए। त्यागी होनेकी योग्यताकी पहली शर्त स्वश्रम ही होना चाहिए, न कि दानवृत्तिपर निभना । और अपनेको सेवक रूपसे पहचान करानेमें उसे किसी संकोच या लज्जाका अनुभव न करना चाहिए ।
परिवर्तनकी नींव त्यागी-संस्थाको केवल सेवक-संस्था नाम दे देनेसे अधिक परिवर्तन नहीं हो सकता और थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जानेपर भी उसमें दोषों का आना नहीं रुक सकता। इसके लिए तो तत्त्वमें ही परिवर्तन होना चाहिए । आज लगभग सभी त्यागी-संस्थाएँ सच्चे उत्तरदायित्वसे रहित हैं और उसके कारण ही वे व्यर्थ अथवा हानिकर हो गई हैं। इसलिए उसमें सेवक नामके साथ उत्तरदायित्वका तत्त्व भी प्रविष्ट होना चाहिए और यह स्वश्रमसे निर्वाह करनेका उत्तरदायित्व जहाँ जीवनमें प्रविष्ट हुआ वहाँ दूसरोंकी सुविधाका उपभोग करनेके बदले आवश्यकता पड़ने पर लोगोंकी पगचंपी तक करनेका अपने आप मन हो जायगा और लोग भी उसके पाससे ऐसी सेवा स्वीकार करते समय हिचकिचाहटका अनुभव नहीं करेंगे। त्यागका अर्थ समझा जाता है घर-कुटुंबादि छोड़कर अलग हो जाना। इतना करते ही वह अपनेको त्यागी मान लेता है और दसरे भी उसे त्यागी समझ बैठते हैं। परंतु त्यागके पीछे सच्चा कर्तव्य क्या है इसे न तो वह खुद देखता है और न लोग देखते हैं, जब कि सेवामें इससे उलटा है। सेवाका अर्थ किसीका त्याग नहीं किन्तु सबके संबन्धकी रक्षा करना और इस रक्षामें दूसरोंकी शक्ति और सुविधाका उपयोग करनेकी अपेक्षा अपनी ही शक्ति, चतुराई और सुविधाका दूसरों के लिए उपयोग करना है। सेवा किये विना सेवक कहलानेसे लोग उससे जवाब तलब करेंगे, इसलिए वहाँ अधिक पोल नहीं चल सकेगी।
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