________________
त्यागी-संस्था
वे रमते राम होते हैं और जहाँ तहाँ अपने आचरणकी छूत लगाते फिरते हैं । इसलिए लोगोंमें उनके द्वारा सद्गुणोंके बदले दोषोंका ही पोषण होता है। त्यागी-संस्थाको अपना निर्वाह करनेके लिए लोकश्रद्धापर ही आश्रित रहना पड़ता है और उसके ठोस न होनेके कारण लोगोंको जाने अनजाने वहम,
और अन्धश्रद्धाका पोषण करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इस तरह इस निश्चिन्त और वे जिम्मेदार जीवनमें दोषोंकी परंपरा चलती रहती है ।
उपाय त्यागी संस्थामें गुणोंका प्रमाण कम होनेपर भी यदि दोष दूर किये जा सकते हैं और गुणोंका प्रमाण बढ़ाया जा सकता है, तो बिलकुल नष्ट करनेकी अपेक्षा उसमें योग्य परिवर्तन करना ठीक होगा। अब यह देखना चाहिए कि यह सब कैसे हो सकता है ? मनुष्य अपने अनुभव और बुद्धि के अनुसार ही रास्ता बता सकता है और यदि उसकी अपेक्षा कोई अच्छा रास्ता अनुभवमें आ जाय अथवा उसे कोई बतलानेवाला मिल जाय, तो उस रास्तेपर जमकर बैठ रहनेका आग्रह भी नहीं रखता। अब तो इसका परिवर्तन सेवक-. संस्थामें होना चाहिए । त्यागका असली अर्थ विस्मृत हो जाने और त्यागीको मिलनेवाली सुविधामें उसका स्थान दब जानेके कारण, जब कोई त्यागी भक्तोंमें, लोगोंमें, समाजमें या किसी स्थलपर जाता है, तब वह अपनेको सबका गुरु मान कर आदर-सत्कार और मान-प्रतिष्ठाकी आकांक्षा रखता है। यह आकांक्षा उसे घमंडी बना देती है और राजगद्दीके वारिस राजकुमारकी तरह उसे साधारण लोगोंसे नम्रतापूर्वक मिलनेसे रोकती है । इसलिए हर एक त्यागीसंस्थाको अब सेवक-संस्था बन जाना चाहिए, जिसका हर एक सभ्य अपनेको त्यागी नहीं, सेवक समझे और दूसरों के दिलमें भी यह भावना ठसा दे। लोग भी उसे सेवक ही समझें, गुरु नहीं। अपनेको सेवक माननेपर और अपने व्यवहारके द्वारा भी दूसरोंके सामने सेवक रूपसे हाजिर होनेपर अभिमानका भाव अपने आप नष्ट हो जाता है, तथा लोगोंके कंधों या सिरपर चढ़नेका प्रश्न न रहनेसे भोगका परिमाण भी अपने आप कम हो जाता है और परिमाणके कम होनेपर दूसरे अनेक दोष बढ़ते हुए रुक जाते हैं । इस बातमें कोई तथ्य नहीं कि स्वश्रमसे निर्वाहयोग्य अर्जन करनेसे समयाभावके कारण कम सेवा होगी। हिसाब लगाकर देखनेपर स्वश्रमसे दूसरोंकी अधिक ही सेवा होगी। अपना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org