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वर्तमान साधु और नवीन मानस
महावीरके बादके इतिहासमें कलह और संघर्ष होनेके यों तो कई प्रमाण मिलते हैं लेकिन वह संघर्ष जब धार्मिक था तब दोनों ओरके विरोधी सूत्रधार केवल साधु ही थे और वे पूर्ण अहिंसक होनेके कारण प्रत्यक्ष रूपसे हिंसा-युद्ध नहीं कर सकते थे, इस लिए लगाम अपने हाथमें रख कर अपने अपने गच्छकी छावनियोंमें श्रावक सिपाहियोंके द्वारा ही लड़ते थे और इतने कौशलसे लड़ते थे कि लड़नेकी भूख भी मिट जाती थी और अहिंसाका पालन भी होता था। इस प्रकार पुराने इतिहासमें श्रावकों-श्रावकोंके बीचकी धार्मिक लड़ाई भी वास्तवमें तो साधु-साधुओंकी ही लड़ाई थी। लेकिन उसमें एक भी दृष्टान्त ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें आजकलकी भाँति प्रत्यक्ष रीतिसे साधुओं और श्रावकोंके बीच लड़ाई हुई हो।
साधुओंका दृष्टिबिंदु प्राचीन समयमें शिक्षा साधु और श्रावकोंके बीच आजकी तरह भिन्न नहीं थी। गृहस्थ लोग व्यापार-धन्धेके बारेमें चाहे जितनी कुशलता प्राप्त कर लें पर धार्मिक शिक्षाके सिलसिलेमें वे साधुओंका ही अनुकरण करते थे । साधुओंका दृष्टिबिंदु ही गृहस्थोंका दृष्टिबिन्दु था। साधुओंके शास्त्र ही गृहस्थोंके अन्तिम प्रमाण थे। साधुओंद्वारा प्रदर्शित शिक्षाका विषय ही गृहस्थोंके अभ्यासका विषय
और साधुओंकी दी हुई पुस्तकें ही गृहस्थोंकी पाठ्य पुस्तकें और लायब्रेरी थी। तात्पर्य यह कि शिक्षण और संस्कारके प्रत्येक विषयमें गृहस्थोंको साधुओंका ही अनुसरण करना पड़ता था । इसलिए उनका धर्म भारतकी पतिव्रता नारीकी तरह साधुओंके पग-पगपर जाने-आनेका था। पतिका तेज ही पत्नीका तेज, यही पतिव्रताकी व्याख्या है। इसी कारण उसे स्वतन्त्र पुरुषार्थ करनेकी आवश्यकता नहीं रहती । जैन गृहस्थोंकी शिक्षा और संस्कारिताके विषयमें यही स्थिति रही है। सिद्धसेन और समन्तमद्र तार्किक तो थे लेकिन साधुपदको पहुँचनेके बाद । यह सच है कि हरिभद्र और हेमचन्द्रने नव नव साहित्यसे भंडार भर दिये लेकिन वह साधुओंकी शालामें दाखिल होनेके बाद । यशोविजयजीने जैन-साहित्यको नया जीवन दिया लेकिन वह भी साधु अभ्यासीके स्वरूपमें । हम उस पुराने युगमें किसी भी गृहस्थको जैन साधु जितना समर्थ और प्रसिद्ध विद्वान् नहीं देख पाते, इसका कारण क्या है ? असाधारण पांडित्य
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