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विकासका मुख्य साधन
विकास दो प्रकारका है, शारीरिक और मानसिक । शारीरिक विकास केवल मनुष्योंमें ही नहीं पशु-पक्षियों तकमें देखा जाता है। खान-पान-स्थान आदिके पूरे सुभीते मिलें और चिन्ता, भय न रहे, तो पशु पक्षी भी खूब बलवान् , पुष्ट और गठीले हो जाते हैं। मनुष्यों और पशु-पक्षियोंके शारीरिक विकासका एक अन्तर ध्यान देने योग्य है, कि मनुष्यका शारीरिक विकास केवल खानपान और रहन-सहन आदिके पूरे सुभीते और निश्चिन्ततासे ही सिद्ध नहीं हो सकता जब कि पशु-पक्षियोंका हो जाता है। मनुष्य के शारीरिक विकासके पीछे जब पूरा और समुचित मनोव्यापार-बुद्धियोग हो, तभी वह पूरा और समुचित रूपसे सिद्ध हो सकता है, और किसी तरह नहीं। इस तरह उसके शारीरिकविकासका असाधारण और प्रधान साधन बुद्धियोग-मनोव्यापार-संयत प्रवृत्ति है।
मानसिक-विकास तो जहाँ तक उसका पूर्णरूप संभव है मनुष्यमात्रमें है। उसमें शरीर-योग-देह-व्यापार अवश्य निमित्त है, देह-योगके बिना वह संभव ही नहीं, फिर भी कितना ही देह-योग क्यों न हो, कितनी ही शारीरिक पुष्टि क्यों न हो, कितना ही शरीर-बल क्यों न हो, यदि मनोयोग-बुद्धि-व्यापार या समुचित रीतिसे समुचित दिशामें मनकी गति-विधि न हो, तो पूरा मानसिक विकास कभी सम्भव नहीं।
अर्थात् मनुष्यका पूर्ण और समुचित शारीरिक और मानसिक विकास केवल व्यवस्थित और जागरित बुद्धि-योगकी अपेक्षा रखता है।
हम अपने देशमें देखते हैं कि जो लोग खान-पानसे और आर्थिक दृष्टिसे ज्यादा निश्चिन्त हैं, जिन्हें विरासतमें पैतृक सम्पत्ति जमींदारी या राजसत्ता
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