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धर्म और समाज
फिर क्या कारण है कि उनकी कर्तव्य-दृष्टि या जवाबदेही ऐसी स्थिर, व्यापक
और शुद्ध थी, और हमारी इसके विपरीत । जवाब सीधा है कि ऐसे पुरुषोंमें उतरदायित्व या कर्तव्य-दृष्टिका प्रेरक भाव जीवन-शक्तिके यथार्थ अनुभवमेंसे आता है, जो हममें नहीं है।
ऐसे पुरुषोंको जीवन-शक्तिका जो यथार्थ अनुभव हुआ है उसीको जुदे जुदे दार्शनिकोंने जुदी जुदी परिभाषामें वर्णन किया है। उसे कोई आत्म-साक्षात्कार कहता है, कोई ब्रह्म-साक्षात्कार और कोई ईश्वर-दर्शन, पर इससे वस्तुमै अन्तर नहीं पड़ता। हमने ऊपरके वर्णनमें यह बतलानेकी चेष्टा की है कि मोहजनित भावोंकी अपेक्षा जीवन-शक्तिके यथार्थ अनुभवका भाव कितना और क्यों श्रेष्ठ है और उससे प्रेरित कर्तव्य-दृष्टि या उत्तरदायित्व कितना श्रेष्ठ है । जो वसुधाको कुटुम्ब समझता है, वह उसी श्रेष्ठ भावके कारण । ऐसा भाव केवल शब्दोंसे
आ नहीं सकता। वह भीतरसे उगता है, और वही मानवीय पूर्ण विकासका मुख्य साधन है। उसीके लाभके निमित्त अध्यात्म-शास्त्र है, योग मार्ग है.. और उसीकी साधनामें मानव-जीवनकी कृतार्थता है ।
[संपूर्णानन्द-अभिनन्दन ग्रन्थ-१९५० ]
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