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शास्त्र - मर्यादा
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ओर दौड़ पड़ते हैं, गुफावास स्वीकार करते हैं, मा-बाप या आश्रितोंकी जवाबदारी फेंक देते हैं, तब उनका जीवन विसंवादी हो जाता है और बदलते हुए नये संयोगों के साथ नया जीवन घड़नेकी अशक्तिके कारण उनके जीवन में विरोध मालूम पड़ता है ।
राष्ट्रीय क्षेत्र और राज- काजमें जैनोंके भाग लेने न लेनेके सम्बन्धमें जानना चाहिए कि जैनत्व त्यागी और गृहस्थ ऐसे दो वर्गों में विभाजित है । गृहस्थ- जैनत्व यदि राजकर्ताओं, राज्यके मन्त्रियों, सेनाधिपतियों वगैरह अधिकारियोंमें, स्वयं भगवान महावीरके समयमें ही प्रकट हुआ था और उसके बाद २३०० वर्षो तक राजाओं तथा राज्यके मुख्य कर्मचारियों में जैनत्व के प्रकट करनेका अथवा चले आते हुए जैनत्वको स्थिर रखनेका प्रयत्न जैनाचार्योंने किया था, तो फिर आज राष्ट्रीयता और जैनत्वके बीच विरोध किस लिए दिखाई देता है ? क्या वे पुराने जमानेके राजा, राजकर्मचारी और उनकी राजनीति सब कुछ मनुष्यातीत या लोकोत्तर भूमिकी था ? क्या उसमें कूटनीति, प्रपंच, या वासनाओंको ज़रा भी स्थान नहीं था या उस वक्तकी भावना और परिस्थितिके अनुसार राष्ट्रीय अस्मिता जैसी कोई वस्तु थी ही नहीं ? क्या उस वक्त के राज्यकर्ता केवल वीतराग दृष्टिसे और वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावनासे राज्य करते थे ? यदि इन सब प्रश्नोंका उत्तर यह हो कि जैसे साधारण गृहस्थ जैनत्व धारण करनेके साथ अपने साधारण गृहव्यवहार चला सकता है, वैसे ही प्रतिष्ठित तथा वैभवशाली गृहस्थ मी जैनत्वके साथ अपनी प्रतिष्ठाको सँभाल सकता है और इसी न्यायसे राजा तथा राजकर्मचारी भी अपने कार्यक्षेत्र में रहते हुए सच्चे जैनत्वकी रक्षा कर सकते हैं, तो आजकी राजनीतिकी समस्याका उत्तर भी यही है । अर्थात् राष्ट्रीयता और राजनीतिके साथ सच्चे जैनत्वका, यदि वह हृदयमें प्रकट हुआ हो तो, कुछ भी विरोध नहीं । निःसन्देह यहाँ त्यागीवर्गकी बात विचारनी रह जाती है। त्यागीवर्गका राष्ट्रीय क्षेत्र और राजनीतिके साथ सम्बंध घटित नहीं हो सकता, यह कल्पना उत्पन्न होनेका कारण यह मान्यता है कि राष्ट्रीय प्रवृत्ति में शुद्धि जैसा तत्त्व ही नहीं होता और राजनीति भी समभाव वाली नहीं हो सकती । परन्तु अनुभव बतलाता है कि यथार्थ वस्तुस्थिति ऐसी नहीं । यदि प्रवृत्ति करनेवाला स्वयं शुद्ध है तो वह प्रत्येक जगह शुद्धि ला सकता और
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