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शास्त्र-मर्यादा
कोई एकाध माईका लाल, सच्चा गुरु, जीवित होगा तो इस कठोर प्रयोगके पहले ही गुरुसंस्थाको बरबादीसे बचा लेगा। जो व्यक्ति आन्तरराष्ट्रीय शान्तिपरिषद-जैसी परिषदोंमें उपस्थित होकर जगतका समाधान हो सके ऐसी रीतिसे अहिंसाका तत्त्व समझा सकेगा, अथवा अपने अहिंसा-बलपर वैसी परिषदोंके हिमायतियोंको अपने उपाश्रयमें आकर्षित कर सकेगा, वही अब सच्चा जैनगुरु बन सकेगा। इस समयका जगत पहलेकी अल्पतासे मुक्त होकर विशालतामें जाता है, वह )जात-पाँत, सम्प्रदाय, परम्परा, वेष या भाषाकी पर्वाह किये विना केवल शुद्ध ज्ञान और शुद्ध त्यागकी प्रतीक्षामें खड़ा है। इससे यदि वर्तमान गुरुसंस्था शक्तिवर्धक होनेके बदले शक्ति-वाधक होती हो, तो उसकी और जैन समाजकी भलाई के लिए सर्व प्रथम प्रत्येक समझदार मनुष्यको उसके साथ असहकार करना चाहिए । यदि ऐसा करनेकी आज्ञा जैन शास्त्रोंमेंसे ही प्राप्त करनी हो तो वह सुलभ है। गुलामीकी वृत्ति न नवीन रचती है और न प्राचीनको सुधारती या फेंकती है। इस वृत्तिके साथ भय और लालचकी सेना होती है। जिसे सद्गुणोंकी प्रतिष्ठा करनी होती है, उसे गुलामी वृत्तिका बुरका फेंक कर प्रेम और नम्रता कायम रख कर, विचार करना चाहिए।
धंधेके विषयमें जैनशास्त्रोंकी मर्यादा बहत ही संक्षिप्त है और वह यह कि जिस चीजका धंधा धर्म-विरुद्ध या नीति-विरुद्ध हो, उस चीजका उपभोग भी धर्म और नीति-विरुद्ध है। जैसे मांस और मद्य जैनपरम्पराके लिए वर्म्य बतलाये गये हैं तो उनका व्यापार भी उतना ही निषिद्ध है। जिस वस्तुका व्यापार समाज नहीं करता है उसे उसका उपभोग भी छोड़ देना चाहिए। इसी कारण अन्न, बस्त्र और विविध वाहनोंकी मर्यादित भोग-तृष्णा रखनेवाले भगवान्के मुख्य उपासक अन्न, वस्त्र वगैरह सभी चीजें उत्पन्न करते थे और उनका व्यापार करते थे। जो मनुष्य दूसरेकी कन्याके साथ विवाह कर अपना घर तो बसावे पर अपनी कन्याके विवाहमें धर्म-नाश देखे, वह या तो मुर्ख होना चाहिए और या धूर्त । समाजमें प्रतिष्ठित तो वह नहीं होना चाहिए। यदि कोई मनुष्य कोयला, लकड़ी, चमड़ा और यंत्रोंका प्रकट रूपसे उपयोग करता है पर वैसे व्यापारका त्याग करता है तो इसका यही अर्थ है कि वह दूसरोंसे वैसे
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