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धर्म और समाज
दोनों आध्यात्मिक जीवनके दो पंख, अथवा दो० प्राणपद फेफड़े हैं । एक आचारको उज्ज्वल करता है और दूसरा दृष्टिको शुद्ध और विशाल बनाता है । इसी बात को दूसरी रीति से कहना हो तो कहिए कि जीवनकी तृष्णाका अभाव और एकदेशीय दृष्टिका अभाव ही सच्चा जैनत्व है । सच्चा जैनत्व और जैनसमाज इन दोके बीच ज़मीन आसमानका अन्तर है । जिन्होंने सच्चा जैनत्व पूर्णरूप से अथवा थोड़े-बहुत प्रमाणमें साधा है, उन लोगों का समाज या तो बँधता ही नहीं और यदि बँधता है तो उसका मार्ग ऐसा निराला होता है कि उसमें झंझटें खड़ी ही नहीं होतीं और होती हैं तो उनका शीघ्र ही निराकरण हो जाता है।
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जैनत्वको साधनेवाले और सच्चे जैनत्वकी उम्मीदवारी करनेवाले जो इने गिने लोग प्रत्येक कालमें होते रहते हैं वे तो जैन हैं । और ऐसे जैनोंके शिष्य या पुत्र जिनमें सच्चे जैनत्वकी उम्मीदवारी तो होती नहीं किन्तु सच्चे जैनत्वके साधकों और उम्मीदवारोंके रीतिरिवाज या स्थूलमर्यादाएँ ही होती हैं वे सब जैनसमाजके अंग हैं । गुण-जैनोंका व्यवहार आन्तरिक विकासके अनुसार होता है, उनके व्यवहार और आन्तरिक विकासके बीच विसंवाद नहीं होता; जब कि सामाजिक जैनोंका इससे उलटा होता है । उनका बाह्य व्यवहार तो गुण-जैनोंकी व्यवहार - विरासतके अनुसार होता है परन्तु आन्तरिक विकासका अंश नहीं होता - वे तो जगत के दूसरे मनुष्योंके समान ही भोगतृष्णावाले तथा संकीर्णदृष्टिवाले होते हैं। एक तरफ आन्तरिक जीवनका विकास ज़रा भी न हो और दूसरी तरफ वैसी विकासवाली व्यक्तियों में पाये जानेवाले आचरणोंकी नकुल हो, तब यह नकुल विसंवादका रूप धारण करती है तथा पद-पदपर कठिनाइयाँ खड़ी करती है । गुण- जैनत्वकी साधना के लिए भगवान महावीर या उनके सच्चे शिष्योंने वनवास स्वीकार किया, नग्नत्व धारण किया, गुफायें पसंद कीं, घर तथा परिवारका त्याग किया, धन-सम्पत्तिकी तरफ़ बेपर्वाही दिखलाई । ये सब बातें आन्तरिक विकास से उत्पन्न होनेके कारण जरा भी विरुद्ध नहीं मालूम होतीं । परन्तु गले तक भोगतृष्णा में डूबे हुए, सच्चे जैनत्वकी साधनाके लिए ज़रा भी सहनशीलता न रखनेवाले और उदारहृष्टि-रहित मनुष्य जब घर-बार छोड़कर जंगलकी
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